गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 27
शुभांग ने कहा- पूर्वकाल में भगवान नृसिंह हिरण्यकशिपु को मारकर प्रह्लाद के साथ यहाँ आये और हरि वर्ष में बस गये। भक्तवत्सल भगवन नृसिंह ने प्रह्लाद से कहा । नृसिंह बोले- पुत्र ! तुम मेरे शान्त–भक्त हो, तथापि तुम्हारे पिता का मेरे द्वारा वध हुआ है; अत: महामते ! मैं तुम्हारे वंश में अब और किसी को नहीं मारूँगा । प्रह्लाद ने कहा- भक्तजन प्रति पालक परमेश्वर ! मैंने माता-पिता की सेवा नहीं की; अत: मैं उनके ऋण से कैसे मुक्त होऊँगा । शुभांग कहते हैं- कयाधू-कुमार प्रह्लाद इस ‘दशार्ण मोचन तीर्थ’ में सन्नान करके सब ऋणों से मुक्त हो गये। वे आज भी निषधगिरि से यहाँ इस तीर्थ में नहाने के लिये आया करते हैं। दशार्ण मोचन तीर्थ के निकट का देश ‘दशार्ण’ कहलाता है। उसी के स्त्रोत से प्रकट हुई यह नदी ‘दशार्णा’ कहलाती है। नारद जी कहते हैं- राजन् ! यह सुनकर भगवान प्रद्युम्न ने समस्त परिकरों के साथ दशार्ण मोचन तीर्थ में स्न्नान और दान किया। नरेश्वर ! जो दशार्ण मोचन की कथा भी सुन लेगा, वह दस ऋणों से मुक्त हो जायगा और मोक्ष का भागी होगा । इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में विश्वजित खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में ‘दशार्ण देश पर विजय’ नामक सत्ताईसवां अध्याय पूरा हुआ । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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