गर्ग संहिता
गोलोक खण्ड : अध्याय 11
श्री नारद जी कहते हैं- राजन ! पिता-माता की ओर से किया गया वह स्तवन सुनकर पाप नाशन साक्षात परिपूर्णतम भगवान श्रीकृष्ण मन्द-मन्द मुस्कारते हुए देवकी तथा वसुदेव जी से बोले। श्रीभगवान ने कहा- पूर्वसृष्टि में ये माता पतिव्रता पृश्नि थी और प्रजापति सुतपा। आप दोनों ने संतान के लिये ब्रह्माजी की आज्ञा से अन्न और जल का त्याग करके बड़ी भारी तपस्या की थी। एक मनवंतर का समय बीत जाने पर भी प्रजा की कामना से आपकी तपस्या चलती रही, तब मैं आप दोनों पर प्रसन्न होकर बोला- ‘आप लोग कोई उत्तम वर माँग लें।’ मेरी बात सुनकर आप तत्काल बोले- ‘प्रभो ! हम दोनों को आपके समान पुत्र प्राप्त हो’ उस समय ‘तथास्तु’ कहकर जब मैं चला गया, तब आप दोनों दम्पति अपने पुण्य कर्म के फलस्वरूप प्रजापति हुए। संसार में मेरे समान तो कोई पुत्र है नहीं यह विचार कर मैं ‘पृश्नगिर्भ’ नाम से विख्यात हुआ। फिर दूसरे जन्म में जब आप कश्यप और अदिति हुए, तब मैं आपका पुत्र वामन आकार वाला उपेन्द्र हुआ। उसी प्रकार इस वर्तमान जन्म में भी मैं परात्पर परमेश्वर आप दोनों का पुत्र हुआ हूँ। पिताजी ! अब आप मुझे नन्द भवन में पहुँचा दें। इससे आप दोनों को कंस से कोई भय नहीं होगा। नन्दराय जी की पुत्री को यहाँ ले आकर आप सुखी होइयेगा। श्री नारद जी कहते हैं- राजन ! यों कहकर भगवान वहाँ मौन हो, उन दोनों के देखते-देखते वर्तमान स्वरूप को अदृश्य करके, बालरूप हो पृथ्वी पर पड़ गये- जैसे किसी नट ने क्षणभर में वेष परिवर्तन कर लिया हो। शिशु को पालने में सुलाकर ज्यों ही वसुदेव जी ले जाने को उद्यत हुए, त्यों ही महावन में नन्द पत्नि के गर्भ से योगमाया ने स्वत: जन्म ग्रहण किया। उसी के प्रभाव से सब लोग सो गये। पहरेदार भी नींद लेने लगे। सारे दरवाजे मानो किसी ने खोल दिये। साँकल और अर्गलाएँ टूट-फूट गयीं। श्रीकृष्ण को माथे पर लिये जब वसुदेव जी गृह से बाहर निकले, उस समय उनके भीतर का अज्ञान और बाहर का अँधेरा स्वत: दूर हो गया-ठीक उसी तरह, जैसे सूर्योदय होने पर अन्धकार का तत्काल नाश हो जाता है। आकाश में बादल घिर आये और वे जल की वृष्टि करने लगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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