गर्ग संहिता
गोलोक खण्ड : अध्याय 11
उस पर विचित्र रीति से मनोहर पत्र रचना की गयी थी, जिससे मण्डित अभिराम मुख सदैव करोड़ों कामदेवों को मोह लेता था। वे परिपूर्णतम परात्पर भगवान मधुर ध्वनि से वेणु बजाने में तत्पर थे[1] ऐसे पुत्र का अवलोकन करके यदुकुल तिलक वसुदेवजी के नेत्र भगवान के जन्मोत्सव जनित आनन्द से खिल उठे। फिर उन्होंने शीघ्र ही ब्राह्मणों को एक लाख गो दान करने का मन ही मन संकल्प लिया। सूतिकागार में प्रभु का आविर्भाव प्रत्यक्ष हो गया, इससे वसुदेव जी का सारा भय जाता रहा। वे अत्यंत विस्मित हो, हाथ जोड़कर आदि अंतरहित श्रीहरि को प्रणाम करके, स्तोत्रों द्वारा उनका स्तवन करने लगे। श्री वसुदेव जी बोले- भगवन ! जो एकमात्र अद्वितीय हैं, वे ही परब्रह्म परमात्मा आप प्रकृति के सत्त्वादि गुणों के कारण अनेक रूपों में प्रतीत होते हैं। आप ही संहारक, आप ही उत्पादक तथा आप ही इस जगत के पालक हैं। हे आदिदेव ! हे त्रिभुवनपते परमात्मन ! जैसे स्फटिकमणि औपाधिक रंगों से लिप्त नहीं होती, उसी प्रकार आप देह के वर्णों से निर्लिप्त ही रहते हैं। ऐसे आप परमेश्वर को मेरा नमस्कार है। जैसे ईधन में आग छिपी रहती है, उसी तरह आप अव्यक्त रूप से इस सम्पूर्ण जगत में विद्यमान हैं; तथा जैसे आकाश सबके भीतर और बाहर भी स्थित हैं। आप ही पृथ्वी की भाँति इस समस्त जगत के आधार हैं, सबके साक्षी हैं तथा वायु की भाँति सर्वत्र जाने की शक्ति रखते हैं। आप गौ, देवता, ब्राह्मण, अपने भक्तजन तथा बछड़ों के पालक हैं और उद्भट भूभार का हरण करने के लिये ही मेरे घर में अवतीर्ण हुए हैं। इस भूतल पर समस्त पुरुषोंत्तमों से भी उत्तम आप ही हैं। भुवनपते ! पापी कंस से मुझे बचाइये। [2] श्री नारद जी कहते हैं- मिथिलापते ! सर्व देवतास्वरूपिणी देवकी को भी यह ज्ञात हो गया कि मेरे घर में परिपूर्णतम भगवान साक्षात श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण का आविर्भाव हुआ है। अत: वे भी उन्हें नमस्कार करके बोलीं। देवकी ने कहा- हे सच्चिदानन्दघन श्रीकृष्ण ! हे अगणित ब्रह्माण्डों के स्वामी ! हे परमेश्वर ! हे गोलोकधाम मन्दिर की ध्वजा ! हे आदिदेव ! हे पूर्णरूप ईश्वर ! हे परिपूर्णतम परमेश ! हे प्रभो ! आप पापी कंस के भय से मेरी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये।[3] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ स्फुरदच्छचविचित्रहारिणं विलसत्कौस्तुपभरत्नरहारिणम्। परिधिद्युतिनूपुरांगदं धृतबालार्क किरीटकुण्डलम् ।।
चलदद्भुतवह्निकंकणं चलदूर्जदगुणमेखलाचितम्। मधुभृद्ध्वनिपद्ममालिनं नवजाम्बूयनददिव्यधवाससम् ।।
सतडिद्घनदिव्यंसौभगं चलनीलालकवृन्दधभृन्मुरखम। चलदंशुतमोहरं परं शुभदं सुन्ददरमम्बुजेक्षणम् ।।
कृतपत्रविचित्रमण्डनं सततं कोटिमनोजमोहनम्। परिपूर्णतमं परात्परं कलवेणुध्वनिवाद्यतत्परम् ।। (गर्ग0, गोलोक0 11। 25-28) - ↑ श्रीवसुदेव उवाच- एको य: फ्रकृतिगुणैरनेकधासि हर्ता त्वंस जनक उतास्यं पालकस्व्ंम्। निर्लिप्त : स्फटिक इवाद्य देहवर्णस्तसस्मै श्रीभुवनपते नमामि तुभ्यम् ।। एधस्सु त्वनल इवात्र वर्तमानो योऽन्तय:स्थो बहिरपि चाम्बैरं यथा हि । आधारो धरणिरिवास्य सर्वसाक्षी तस्मै ते नम इव सर्वगो नभस्वान् ।। भूभारोद्भटहरणार्थमेव जातो गोदेवद्विजनिजवत्सीपालकोऽसि । गेहे मे भुवि पुरुषोत्तामोत्तमस्त्वं कंसान्मां भुवनपते प्रपाहि पापात् ।।-(गर्ग0, गोलोक0 11। 31-33)
- ↑ हे कृष्णि हेअविगणिताण्डंपते परेश गोलोकधामधिषणध्वसज आदिदेव। पूर्णेश पूर्ण परिपूर्णतम प्रभो मां त्वंिपाहि पाहि परमेश्वलर कंसपापात् ।।
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