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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
5.अवधूत-धर्म
भगवद्भक्ति जिसके हृदय में पूर्णतः प्रकट हो जाती है उसे मोक्ष की भी न तो इच्छा रहती है न प्रयोजन। वह उसे स्वीकार नहीं करता। क्योंकि भगवत्सेवा में जो आनंद पाया, उसे छोड़ने के लिए वह तैयार नहीं होता।
फिर कहते हैं कि परीक्षित तुम्हारा वंश तो बड़ा भाग्यशाली है। भगवान श्री कृष्ण न केवल उसके गुरु, स्वामी, इष्टदेव सहृद् कुलपति रहे हैं, वरन् वे तो तुम्हारे वंश में सेवक भी रह चुके हैं। वह क्यों, मालूम है? इसलिए कि उनके श्री चरणों में तुम्हारे वंशजों की अनन्य भक्ति थी। इसी प्रकार वे अन्य भक्तों के भी सारे कार्य कर सकते हैं। यदि कोई चाहे तो उसे मुक्ति भी दे सकते हैं। परन्तु, इन मुकुंद भगवान की एक विचित्र बात ऐसी है कि ये मुक्ति देने में तो उदार हैं, लेकिन भक्ति देने में नहीं। उसी को भक्ति देते हैं जो मुक्ति को भी छोड़ने को तैयार हो जाए। तुकारामजी महाराज कहते हैं - ‘न लगे मुक्ति धन संपदा संत संग देई सदा।’ मुझे धन संपदा या मुक्ति नहीं चाहिए, मुझे तो सदा संतों का संग चाहिए। ऐसे व्यक्ति को ही भक्ति प्राप्त होती है। इस बात को कोई तर्क से नहीं समझ सकता। न ही वर्णन करके इसे समझाया जा सकता है। इस प्रकार ऋषभदेव के अवतार का यह सुंदर प्रसंग यहीं समाप्त होता है। जहाँ ऋषभदेव ने गृहस्थाश्रम स्वीकार करके लोगों को गृहस्थ धर्म की शिक्षा दी, वहीं अन्ततः आत्म लोक का उपदेश करके परमहंस का व्यवहार और जीवन भी दर्शाया। कहते हैं, ‘नमो भगवते ऋषभाय तस्मै’[3] उन ऋषभदेव जी को नमस्कार है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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