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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
5.अवधूत-धर्म
एक दिन उस वेश्या को पता चला कि वे मर गए हैं। वह पुनः आकर वहाँ खड़ी हो गई जहाँ संत का देह पड़ा हुआ था और कहने लगी - मैंने जो प्रश्न पूछा था उसका उत्तर तो इन्होंने दिया ही नहीं। मेरे प्रश्न का उत्तर दिए बिना मर कैसे गए? तो ऐसा कहते हैं कि वह मृत शरीर एक क्षण के लिए उठकर बैठ गया, और ‘जीत लिया’ इतना कहकर वह पुनः पूर्ववत् मृत पड़ा रहा। कहने का भाव यह है कि मरते दम तक, अन्तिम क्षण तक इस मन पर विश्वास नहीं करना चाहिए। भगवान शंकराचार्य ने श्री गीता जी के भाष्य में लिखा है - ‘अनन्त निमित्तवान् हि कामः’ इस काम के अनन्त निमित्त होते हैं। वह हमें कहाँ किस चक्कर में डाल दे इसका कोई ठिकाना नहीं, कोई भरोसा नहीं। इसलिए कहा -
इस चंचल मन पर कभी विश्वास नहीं करना। विश्वास करते ही, क्षण भर में यह हमें नीचे गिरा देता है। अतः सदा सावधान, जागृत रहना चाहिए।
समझदार लोग सदा इसे अपने वश में रखते हैं, इस पर भरोसा नहीं करते। इस प्रकार ऋषभदेव ने परमहंस की चर्या को, व्यवहार को सब के सामने प्रकट कर दिया और इसके बाद तो उन्होंने बोलना ही छोड़ दिया था। मुख में पत्थर का टुकड़ा रख लिया था। फिर एक दिन जब जंगल में पेड़ों के आपस में टकराने से जो आग लगी थी उसी में उन्होंने अपने देह को भस्म कर डाला, जिससे कि किसी को इतना भी कष्ट न उठाना पड़े कि इनके देह को जला दें, गाड़ दें या नदी में बहा दें। परमहंस ऋषभदेव का यह अवतार बड़ा ही श्रेष्ठ अवतार है। श्रद्धापूर्वक जो इसका श्रवण करते हैं और जो इस पर मनन करते हैं उन दोनों को ही भगवान वासुदेव की अनन्य भक्ति प्राप्त हो जाती है। शुकदेवजी कहते हैं कि यदि ऐसी भक्ति किसी के हृदय में आ जाए तो वह मोक्ष का भी विशेष आदर नहीं करता, उसे भी छोड़ देता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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