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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
18.पुरञ्जनोपाख्यान का तात्पर्य
ऐसा आशीर्वाद उन दस प्रचेताओं को नारायण भगवान ने दे दिया। तब वे सब समुद्र के समान विशाल उस नारायण सरोवर से निकल आये। लौटकर उन्होंने देखा कि उनके पिता प्राचीनबर्हि तप करने के लिए वन में चले गए हैं। वहाँ राज्य में देख-भाल करने वाला कोई नहीं है। सब ओर से वृक्षों ने पृथ्वी को ढक-सा दिया है। स्वर्ग का रास्ता भी बंद-सा कर दिया है। अब देखो, उतना सब साधन-भजन, भगवद् दर्शन आदि होने के बाद भी इनका छिपा हुआ क्रोध प्रकट हो गया। किस जन्म के संस्कार कब प्रकट हो जाएँ, कुछ पता नहीं। क्रोधित होकर वे सारे पेड़ों को काटने लगे। पूरे जंगल को ही समाप्त करने लगे। तो जंगलों के राजा चन्द्र देवता प्रकट हुए। और कहने लगे, ”अरे तुम भी क्या काम करते हो? वृक्षों को नष्ट न करो। इनकी रक्षा करो। इनकी श्रेष्ठ कन्या से विवाह कर लो।“ बोले अच्छा। फिर विवाह हुआ, और सब शान्त हो गए। साथ-साथ रहने लगे। अन्त में इनके मन में भी वैराग्य का उदय हुआ। बोले - हमको रुद्रगीत मिला, नारायण भगवान हम पर प्रसन्न हुए, हमें दर्शन दिया, उसके बाद भी हम राज्य में फँस गये। ऐसा सोच कर वे सब वहाँ से चल दिये। फिर उन्होंने नारदजी को याद किया। तब नारदजी उनके पास आकर उन्हें उपदेश देते हैं। उनका उपदेश प्राप्त कर सारे प्रचेतागण मुक्त हो जाते हैं। इस प्रसंग के साथ ही यह चतुर्थ स्कन्ध समाप्त होता है। ऊँ ऊँ ऊँ ऊँ ऊँ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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