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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
10.चतुःश्लोकी भागवत
यह जगत कैसा है? किससे बना हुआ है? पंचमहाभूतों से बना है। यहाँ जितनी चीज़ें है, उनमें पंचमहाभूत हैं या नहीं हैं? बोले, हाँ है। क्या वास्तव में पंचमहाभूतों ने सभी चीजों में प्रवेश किया है? प्रवेश किया है, ऐसा नहीं कह सकते। मिट्टी का घड़ा बनाया जाता है, तो पहले घड़ा बन गया और बाद में उसमें मिट्टी ने प्रवेश किया, ऐसा नहीं कह सकते। जब घड़ा नहीं था, तब भी मिट्टी थी। और घड़े के रूप में भी मिट्टी ही हैं। अतः ऐसा नहीं कह सकते कि मिट्टी ने घड़े में प्रवेश किया। अच्छा, प्रवेश नहीं किया, यह भी नहीं कह सकते। प्रवेश नहीं किया तो घड़ा कहाँ रहने वाला है। प्रवेश किया, ऐसा कहने के लिए घड़े को मिट्टी से भिन्न कुछ और होना पड़ेगा। इसका अर्थ यह हुआ कि ‘घड़ा’ यह केवल एक नाम है, लेकिन वह है मिट्टी ही। नारायण भगवान ब्रह्माजी से कहते हैं इसी प्रकार केवल एक ‘मैं’ ही हूँ। मुझे आपने एक नाम दे दिया - जगत। बस! सारे जगत में मैंने ही प्रवेश किया है। इस संदर्भ में गीताजी में बड़ी सुन्दर बात कहीं गई है- ‘मया ततमिदं सर्वं’ यह जगत मेरे द्वारा व्याप्त है। सब मुझमें है। बाद में कहते है, मुझमें कुछ भी नहीं है। इसका अर्थ यह हुआ कि जिसको जगत कहते हो, वह भी आभास ही है। जिसको माया कहते हो, वह भी आभास है। जिसको जीव कहते हो वह भी जगत के अन्तर्गत है, अतः वह जीव भी आभास है आभास ही आभास है, उस परमात्मा का भास कहीं हो नहीं रहा है। तो फिर उस परमात्मा का भान कैसे हो? इसके लिए साधन क्या है? चौथे श्लोक में परमात्म प्राप्ति का साधन बताया गया है।
अब कहते हैं, अन्वय और व्यतिरेक की प्रक्रिया से इस परम तत्त्व को जान लेना चाहिए। दुनिया में और कोई जानने योग्य चीज़ नहीं है। अन्वय-व्यतिरेक का अर्थ है- जब घड़ा है, तब मिट्टी है यह अन्वय हुआ। ‘अन्वय’ माने होना। जब घड़ा नहीं है तब भी मिट्टी है, यह हुआ व्यतिरेक। घड़े का व्यतिरेक- अभाव होने पर भी मिट्टी तो है ही। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 2.9.35
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