विषय सूची
श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
10.चतुःश्लोकी भागवत
यही माया है। पदार्थ का न होकर भी दिखाई देना - जैसे रस्सी में साँप का दिखाई देनां वहाँ साँप है नहीं ‘ऋ़तेऽर्थं प्रतियेत’ वह बिना पदार्थ के ही दिखाई देता है। लेकिन ‘न प्रतीयेत चात्मनि’ - वह किस कारण से दिखाई देता है? रस्सी के अज्ञान के कारण। अज्ञान आपको दिखाई देता है क्या? नहीं। फिर भी वह है न? हाँ है। उसी के कारण दिखाई दे रहा है। पदार्थ है नहीं, परन्तु वह दिखाई नहीं दे रहा है, ‘यथाऽऽभासः’ अज्ञान है, परन्तु वह दिखाई नहीं दे रहा है, ‘यथा तमः’। यह भगवान की माया - ‘तद्विद्यादात्मनो मायां यथाऽऽभासो यथा तमः’। ‘तम’ माने अज्ञान, अन्धकार। वह है परन्तु दिखाई नहीं देता। रस्सी के अज्ञान के कारण साँप दिखाई देता है। हमको तो, न अज्ञान दिखाई देता है, न रस्सी दिखाई देती है, केवल साँप दिखाई देता है जो है नहीं। विस्मयकारी माया है कि नहीं? यह भगवान की माया है। जब हम भगवान को ही देखने लगेंगे, तो समझ में आने लगेगा कि माया कुछ नहीं है। तब अज्ञान है, यह कहना भी विचित्र बात ही जाएगी। जब पदार्थ नहीं होकर भी दिखाई देता है, तो समझाने के लिए कहते हैं कि माया है। अन्यथा, माया नाम की भी कोई चीज़ नहीं है। यह बड़ी विचित्र बात है कि यह माया केवल आभासरूप है। कहीं पर दिखाई नहीं देती। पता नहीं कहाँ पर है, परन्तु सारा खेल कराती रहती है। यह दूसरा श्लोक हुआ माया के विषय में। अब तीसरे श्लोक में जगत का निरूपण है। बोले - जगत क्या है? जगत का वर्णन करना भी बहुत कठिन काम है। पता नहीं यह है भी कि नहीं, और यदि है तो कैसा है?
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 2.9.34
संबंधित लेख
क्रमांक | विवरण | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज