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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
4.सगुण साकार का ध्यान
जो भगवान के गुणों का श्रवण करते हैं और अपने मन को विषयों से हटाकर भगवान में लगा देते हैं, वे पवित्र हो जाते हैं। शुकदेवजी कहते हैं, तुम्हारे प्रश्न का उत्तर मैंने दे दिया। मरणासन्न पुरुष को भगवान का स्मरण करते रहना चाहिए। और किसी प्रकार की चिन्ता को मन में आने नहीं देना चाहिए। यदि कोई दूसरा व्यक्ति भी किसी और का स्मरण कराना चाहे, तो उसकी ओर ध्यान नहीं देना चाहिए। फिर कहते हैं- जगत में भिन्न-भिन्न प्रकार के लोग होते हैं। उनकी इच्छाएँ भी भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है। भगवान की अनेक उपाधियाँ हैं, देवता हैं, वे सब हमारी किसी-न-किसी इच्छा विशेष को ही पूर्ण कर सकते हैं, अतः जिसको प्रजा की कामना हो, उसे प्रजापति की पूजा करनी चाहिए। धन-सम्पत्ति की कामना हो तो देवी की पूजा करनी चाहिए। स्वर्गकाम के लिए देवताओं की, सुन्दर रूप के लिए गन्धर्व की, और अच्छी स्त्री के अप्सरा की पूजा करनी चाहिए। श्रेष्ठ विद्या चाहिए हो, तो शिवजी का ध्यान करना चाहिए। अच्छे वैवाहिक सम्बन्ध के लिए, परस्पर प्रेम के लिए उनकी पत्नी की उमाजी की पूजा करनी चाहिए। इसीलिए सीता जी ने भी दाम्पत्यार्थ पार्वतीजी की पूजा की थी। वे वर रूप में श्री रामचन्द्रजी को ही चाहती थीं। यदि भोग की कामना हो, तो सोमदेव की उपासना करनी चाहिए। लकिन जो निष्काम पुरुष है, उसे तो परमात्मा की ही पूजा करनी चाहिए। सच बात तो यह है कि भोग की चाह हो चाहे योग की, भगवान की ही पूजा करनी चाहिए। देखो, ये जो अन्य देवता हैं, इनके पास सामर्थ्य कहाँ से आयी? उसी परमात्मा से। अतः उसी परमात्मा का भजन करो। आप जो कुछ भी चाहतें हों, वह सब परमात्मा से ही प्राप्त हो जाएगा।
सबसे वड़ा लाभ, सबसे बड़ा श्रेय इतना ही है कि भगवान में अचल भक्ति प्राप्त हो जाए, बुद्धि स्थिर हो जाए। ‘एतावान्’- यही ‘परम पुरुषार्थ’ है। ऐसा कौन है जो भगवान की कथा में नहीं रमता हो? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 2.3.90
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