गर्ग संहिता
गोलोक खण्ड : अध्याय 17
श्रीगोपांगनाएँ कहने लगीं- शुभे ! तुम्हारा लाला खेलने के लिए बड़ी चपलता दिखाता है। इसकी बालकेलि अत्यन्त मनोहर है। ऐसा न हो कि इसे किसी की नजर लग जाये। अत: तुम इस काकपक्षीधारी दुधमुंहे बालक को आँगन से बाहर मत निकलने दिया करों। देखो न, इसके ऊपर, के दो दाँत ही पहले निकले हैं, जो मामा के लिए दोषकारक हैं। यशोदाजी ! तुम्हारे इस बालक के भी कोई मामा नहीं हैं, इसलिए विध्ननिवारण के हेतु तुम्हें दान करना चाहिये। गौ, ब्राह्मण, देवता, साधु, महात्मा तथा वेदों की पूजा करना चाहिये। श्रीनारदजी कहते हैं- राजन ! तब से यशोदा और रोहिणीजी के पुत्रों की कल्याण कामना से प्रतिदिन वस्त्र, रत्न तथा नूतन अन्नी का दान करने लगीं। कुछ दिनों बाद सिंह शावक की भाँति दीखने वाले राम और कृष्ण बालक कुछ बडे़ होकर गोष्ठों में अपने पैरों के बल से चलने लगे। श्रीदामा और सुबल आदि व्रज-बालक सखाओं के साथ यमुनाजी के शुभ्र वालुकामय तट पर तमालों से घिरे और कदम्ब कुञ्ज की शोभा से विलसित कालिन्दी तटवर्ती उपवन में विचरने लगे। श्रीहरि अपनी बाललीला से गोप गोपियों को आनन्द प्रदान करते हुए सखाओं के साथ घरों में जा-जाकर माखन और घृत की चोरी करने लगे। एक दिन उपनन्द पत्नीग गोपी प्रभावती श्रीनन्दे मंदिर में आकर यशोदा से बोलीं। प्रभावती ने कहा- यशोमति ! हमारे और तुम्हारे घरों में जो माखन, घी, दूध, दही और तग्र है, उसमें ऐसा कोई बिलगाव नहीं है कि यह हमारा है और वह तुम्हारा। मेरे यहाँ तो तुम्हारे कृपाप्रसाद से ही सब कुछ हुआ है। मैं यह नहीं कहना चाहती कि तुम्हारे इस लाला ने कहीं चोरी सीखी है। माखन तो यह स्वयं ही चुराता फिरता है, परंतु तुम इसे ऐसा न करने के लिए कभी शिक्षा नहीं देती। एक दिन जब मैंने शिक्षा दी तो तुम्हारा यह ढीठ बालक मुझे गाली देकर मेरे आंगन से भाग निकला। यह चोरी करे, यह उचित नहीं हैं, किन्तु मैंने तुम्हारे गौरव का खयाल करके इसे कभी कुछ नहीं कहा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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