गर्ग संहिता
गोलोक खण्ड : अध्याय 17
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन ! प्रभावती की बात सुनकर नन्द–गेहिनी यशोदा ने बालक को डांट बतायी और बडे़ प्रेम से सान्त्वनापूर्वक प्रभावती से कहा। श्रीयशोदा बोलीं- बहिन ! मेरे घर में करोड़ों गौएं हैं, इस घर की धरती सदा गोरस से भीगी रहती हैं। पता नहीं, यह बालक क्यों तुम्हारें घर में दही चुराता है। यहाँ तो कभी ये सब चीजें चाव से खाता ही नहीं। प्रभावती ! इसने जितना भी दही या माखन चुराया हो, वह सब तुम मुझसे ले लो। तुम्हारे पुत्र और मेरे लाला में किंचिन्मात्र भी कोई भेद नहीं है। यदि तुम इसे माखन चुराकर खाते और मुख में माखन लपेटे हुए पकड़कर मेरे पास ले आओगी तो मैं इसे अवश्य ताड़ना दूँगी, डाँटूँगी और घर में बाँध रखूँगी। श्रीनारदजी कहते हैं- राजन ! यशोदाजी की यह बात सुनकर गोपी प्रभावती प्रसन्नतापूर्वक अपने घर लौट आयी। एक दिन श्रीकृष्ण समवयस्क बालकों के साथ फिर दही चुराने के लिए उसके घर में गये। घर की दीवार के पास सटकर एक हाथ से दूसरे बालक का हाथ पकड़े धीरे-धीरे घर में घुसे। छीके पर रखा हुआ गोरस हाथ से पकड़ में नहीं आ सकता, यह देख श्रीहरि ने स्वयं एक ओखली के ऊपर पीढ़ा रखा। उस पर कुछ ग्वाल-बालों को खड़ा किया और उनके सहारे आप ऊपर चढ़ गये। तो भी छीके पर रखा हुआ गोरस अभी और ऊँचे कद के मनुष्य से ही प्राप्त किया जा सकता था, इसलिए वे उसे न पा सके। तब श्रीदामा और सुबल के साथ उन्होंने मटके पर डंडे से प्रहार किया। दही का बर्तन फूट गया और सारा गव्य पृथ्वी पर बह चला। तब बलराम सहित माधव ने ग्वाल-बालों और बंदरों के साथ वह मनोहर दही जी भरकर खाया। भाण्ड के फूटने की आवाज सुनकर गोपी प्रभावती वहाँ आ पहुँची। अन्य सब बालक तो वहाँ से भाग निकले, किन्तु श्रीकृष्ण का हाथ उसने पकड़ लिया। श्रीकृष्ण भयभीत से होकर मिथ्या आंसू बहाने लगे। प्रभावती उन्हें लेकर नन्द भवन की ओर चली। सामने नन्दनरायजी खड़े थे। उन्हें देखकर प्रभावती ने मुखकर पर घूंघट डाल दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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