गर्ग संहिता
अश्वमेध खण्ड : अध्याय 55
उनकी यह बात सुनकर सत्यभामा प्रसन्न हो गयी और नारदजी भयभीत होकर उठे तथा दूसरे भवन में चले गये। जाम्बवती के घर में जाकर उसके आगे सारा समाचार कहा। सुनकर वह हंसने लगी और बोली- ‘मुनिजी महाराज ! झूठ मत बोलिये, श्रीनाथजी तो भोजन करके घर में सो रहे हैं’। यह सुनकर डरे हुए नारदजी तुरंत वहाँ से निकलकर मित्रबिन्दा के घर में जा पहुँचे और चारों ओर देखते हुए बोले। नारदजी ने कहा- मैया ! जहाँ राजा और रानियों का समाज जुटा है, वहाँ नहीं गयीं क्या ? घर में क्यों बैठी हो ? वहाँ रमावल्लभ श्रीकृष्ण गोमती का जल लाने के लिए जा रहे हैं। वे अपने साथ रुक्मिणी, सत्यभामा तथा जाम्बवती को भी ले जायेंगे। मित्रबिन्दा बोली- देवर्षिजी ! केशव की तो सभी प्यारी हैं। वे जिसको भी छोड़कर चले जायेंगे, वही जीवित नहीं रह सकेगी। उधर घर में देखिये, श्रीकृष्ण अपने पोते को लाड़ लड़ा रहे हैं। तब मुनि उठकर श्रीकृष्ण पत्नियों के सभी घरों में चक्कर लगाते रहे, परंतु उन सबमें उन्हें श्रीकृष्ण की उपस्थिति जान पड़ी। पिर सोच विचारकर देवर्षि श्रीराधा को यह समाचार देने के लिए गोपांगनाओं के महलों में गये, परंतु वहाँ श्रीराधा तथा गोपियों के साथ नन्दनन्दन चौपड़ खेलते दिखायी दिये। उन्हें देखकर देवर्षि ने ज्यों ही वहाँ से खिसक जाने का विचार किया, त्योंही श्रीकृष्ण ने तुरंत उन्हें हाथ से पकड़ लिया और वहीं बैठाया। पिर विधिवत उनकी पूजा करके वे बोले-। श्रीकृष्ण बोले- विप्रवर ! तुम यह क्या कर रहे हो ? व्यर्थ ही मोहित होकर इधर-उधर घूम रहे हो। मैंने अपनी पत्नियों के घर-घर में तुम्हें देखा है। मुनिश्रेष्ठ ! तुम्हारे ही डर से मैंने अनेक रूप धारण किये हैं। तुम ब्राह्मण हो, इसलिये तुम्हें दण्ड तो नहीं दूँगा, परंतु प्रार्थना अवश्य करूँगा। मैं सबका देवता हूँ और ब्राह्मण मेरे देवता है। जो मूढ़ मानव ब्राह्मणों से द्रोह करते हैं, वे मेरे शत्रु हैं। जो लोग ब्राह्मणों को मेरा स्वरूप समझकर उनका पूजन करते हैं, वे इहलोक में सुख भोगते हैं और अन्त में मेरे परमधाम में चले जायेंगे।[1] देवर्षे ! तुम मेरी पुरी में मेरी ही माया से मोहित हो गये, यह सोचकर खेद न करना, क्योंकि ब्रह्मा तथा रुद्र आदि सब देवता मेरी माया से मोहित हो जाते हैं। भगवान का यह वचन सुनकर उनसे प्रशंसित हो वे महामुनि चुपचाप ॠत्विजों से भरे हुए यज्ञमंडप में चले आये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सर्वेषां चैव देवोऽहं मम देवाश्च ब्राह्मण:। ये द्रुह्यन्ति द्विजान मूढा: सन्ति ते मम शत्रव:॥ ये पूजयन्ति विप्रांश्च मम भावेन भूजना:। ते भुञ्जन्ति सुख चात्र ह्यन्ते यास्यन्ति तत्पदम्॥
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