गर्ग संहिता
गोलोक खण्ड : अध्याय 2
दिव्य मणिमय सोपानों से वह अत्यंत उद्भासित हो रहा था। तट की शोभा देखते और आगे बढ़ते हुए वे देवता उस उत्तम नगर में पहुँचे, जो अनन्तकोटि सूर्यों की ज्योति का महान पुञ्ज जान पड़ता था। उसे देखकर देवताओं की आँखें चौंधिया गयी। वे उस तेज से पराभूत हो जहाँ-के-तहाँ खडे़ रह गये। तब भगवान विष्णु की आज्ञा के अनुसार उस तेज को प्रणाम करके ब्रह्माजी उसका ध्यान करने लगे। उसी ज्योति के भीतर उन्होंने एक परम शांतिमय साकार धाम देखा। उसमें परम अद्भुत, कमलनाल के समान धवल वर्ण हजार मुख वाले शेषनाग का दर्शन करके सभी देवताओं ने उन्हें प्रणाम किया। राजन ! उन शेषनाग की गोद में महान आलोकमय लोकवन्दित गोलोकधाम का दर्शन हुआ, जहाँ धामाभिमानी देवताओं के ईश्वर तथा गणनाशीलों में प्रधान कालका भी कोई वश नहीं चलता। वहाँ माया भी अपना प्रभाव नहीं डाल सकती। मन, चित्त, बुद्धि, अहंकार, सोलह विकार तथा महत्तत्त्व भी वहाँ प्रवेश नहीं कर सकते हैं; फिर तीनों गुणों के विषय में तो कहना ही क्या है ! वहाँ कामदेव के समान मनोहर रूप लावण्य शालिनी, श्यामसुन्दरविग्रहा श्रीकृष्णपार्षदा द्वारपाल का कार्य करती थी। देवताओं को द्वार के भीतर जाने के लिये उद्यत देख उन्होंने मना किया। तब देवता बोले- हम सभी ब्रह्मा, विष्णु, शंकर नाम के लोकपाल और इन्द्र आदि देवता हैं। भगवान श्रीकृष्ण के दर्शनार्थ यहाँ आये हैं। श्रीनारदजी कहते हैं- देवताओं की बात सुनकर उन सखियों ने, जो श्रीकृष्ण की द्वारपालिकाएँ थीं, अंत:पुर में जाकर देवताओं की बात कह सुनायीं। तब तक सखी, जो शतचन्द्रानना नाम से विख्यात थी, जिसके वस्त्र पीले थे और जो हाथ में बेंत की छड़ी लिये थी, बाहर आयी और उनसे उनका अभीष्ट प्रयोजन पूछा। शतचन्द्रानना बोली- यहाँ पधारे हुए आप सब देवता किस ब्रह्माण्ड के निवासी हैं, यह शीघ्र बताइये। तब मैं भगवान श्रीकृष्ण सूचित करने के लिये उनके पास जाऊँगी। देवताओं ने कहा- अहो! यह तो बड़े आश्चर्य की बात है, क्या अन्यान्य ब्रह्माण्ड भी हैं ? हमने तो उन्हें कभी नहीं देखा। शुभे ! हम तो यही जानते हैं कि एक ही ब्रह्माण्ड है, इसके अतिरिक्त दूसरा कोई है ही नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |