गर्ग संहिता
गोलोक खण्ड : अध्याय 2
शतचन्द्रानना बोली- ब्रह्मदेव ! यहाँ तो विरजा नदी में करोड़ों ब्रह्माण्ड इधर-उधर लुढ़क रहे हैं। उनमें भी आप जैसे ही पृथक-पृथक देवता वास करते हैं। अरे ! क्या आप लोग अपना नाम-गाँव तक नहीं जानते ? जान पड़ता है कभी यहाँ आये नहीं हैं; अपनी थोड़ी सी जानकारी में ही हर्ष से फूल उठे हैं। जान पड़ता है, कभी घर से बाहर निकले ही नहीं। जैसे गूलर के फलों में रहने वाले कीड़े जिस फल में रहते हैं, उसके सिवा दूसरे को नहीं जानते, उसी प्रकार आप- जैसे साधारण जन जिसमें उत्पन्न होते हैं, एकमात्र उसी को ‘ब्रह्माण्ड’ समझते हैं। श्रीनारदजी कहते हैं-राजन्! इस प्रकार उपहास के पात्र बने हुए सब देवता चुपचाप खड़े रहे, कुछ बोल न सके। उन्हें चकित-से देखकर भगवान विष्णु ने कहा। श्रीविष्णु बोले-जिस ब्रह्माण्डं में भगवान पृश्रिगर्भ का सनातन अवतार हुआ है तथा त्रिविक्रम (विराट-रूपधारी वामन) के नख से जिस ब्रह्माण्ड में विवर बन गया है, वहीं हम निवास करते हैं। श्रीनारदजी कहते हैं- भगवान विष्णु की यह बात सुनकर शतचन्द्रानना ने उनकी भूरी-भूरी प्रशंसा की और स्वयं भीतर चली गयी। फिर शीघ्र ही आयी और सबको अंत:पुर में पधारने की आज्ञा देकर वापस चली गयी। तदंतर सम्पूर्ण देवताओं ने परमसुन्दर धाम गोलोक का दर्शन किया। वहाँ ‘गोवर्धन’ नामक गिरिराज शोभा पा रहे थे। गिरिराज का वह प्रदेश उस समय वसंत का उत्सव मनाने वाली गोपियों और गौओं के समूह से घिरा था, कल्पवृक्षों तथा कल्पलताओं के समुदाय से सुशोभित था और रास-मण्डल उसे मण्डित (अलंकृत) कर रहा था। वहाँ श्यामवर्ण वाली उत्तम यमुना नदी स्वच्छ्न्द गति से बह रही है। तट पर बने हुए करोड़ों प्रासाद उसकी शोभा बढ़ाते हैं तथा उस नदी में उतरने के लिये वैदूर्यमणि की सुन्दर सीढ़ियाँ बनी हैं। वहाँ दिव्य वृक्षों और लताओं से भरा हुआ ‘वृन्दावन’ अत्यंत शोभा पा रहा है; भाँति-भाँति के विचित्र पक्षियों, भ्रमरों तथा वंशीवट के कारण वहाँ की सुषमा और बढ़ रही है। वहाँ सहस्र दल कमलों के सुगन्धित पराग को चारों ओर पुन:-पुन: बिखेरती हुई शीतल वायु मन्द गति से बह रही है। वृन्दावन के मध्य भाग में बत्तीस वनों से युक्त एक ‘निज निकुंज’ है। चहारदीवारियाँ और खाइयाँ उसे सुशोभित कर रही हैं। उसके आँगन का भाग लाल वर्णवाले अक्षय वटों से अलंकृत है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |