गर्ग संहिता
गोलोक खण्ड : अध्याय 11
श्री नारद जी कहते हैं- राजन ! देवकी के मुँह पर आँसुओं की धारा बह रही थी। उसने मोह के कारण बेटी को आँचल में छिपाकर बहुत विनती की वह बहुत रोयी-गिड़गिड़ायी; तो भी उस दुष्ट ने बहिन को डाँट-डपटकर उसकी गोद से वह कन्या छीन ली। वह यदुकुल का कलंक एवं महानीच था। सदा कुसंग में रहने के कारण उसका जीवन पापमय हो गया था। उस दुरात्मा ने अपनी बहिन की बच्ची के दोनों पैर पकड़कर उसे शिला पर दे मारा। वह कन्या साक्षात योगमाया का अवतार देवी अनंशा थी। कंस के हाथ से छूटते ही वह उछलकर आकाश में चली गयी। सहस्र अश्वों से जुते हुए दिव्य ‘शतपत्र’ रथ पर जा बैठी। वहाँ चँवर डुलाये जा रहे थे। उस शुभ्र रथ पर बैठकर वह दिव्य रूप धारण किये दृष्टिगोचर हुई। उसके आठ भुजाएँ थीं और सब में आयुध शोभा पा रहे थे। वह माया देवी अपने पार्षदों से परिसेवित थी। उसका तेज सौ सूर्यों के समान दिखायी देता था। उसने मेघगर्जनातुल्य गम्भीर वाणी में कहा। श्री योगमाया बोली- कंस ! तुझे मारने वाले परिपूर्णतम परमात्मा साक्षात भगवान श्रीकृष्ण तो कहीं और जगह अवतीर्ण हो गये। इस दीन देवकी को तू व्यर्थ दु:ख दे रहा है। श्री नारद जी कहते हैं- राजन ! उससे यों कहकर भगवती योगमाया विन्ध्यपर्वत पर चली गयीं। वहाँ वे अनेक नामों से प्रसिद्ध हुई। योगमाया की उत्तम बात सुनकर कंस को बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने देवकी और वसुदेव को तत्काल बन्धन मुक्त कर दिया। कंस ने कहा- बहिन और बहनोई वसुदेव जी ! मैं पापात्मा हूँ। मेरे कर्म पापमय हैं। मैं इस यदुवंश में महानीच और दुष्ट हूँ। मैं ही इस भूतल पर आप दोनों के पुत्रों का हत्यारा हूँ। आप दोनों मेरे द्वारा किये गये इस अपराध को क्षमा कर दें। मेरी बात सुनें। मैं समझता हूँ, यह सब काल ने किया-कराया है। जैसे वायु मेघमाला को जहाँ चाहे उड़ा ले जाती है, उसी तरह काल ने मुझे भी स्वेच्छानुसार चलाया है। मैंने देव-वाक्य पर विश्वास कर लिया, किंतु देवता भी असत्यवादी ही निकले। इस योगमाया ने बताया है कि ‘तेरा शत्रु भूतल पर अवतीर्ण हो गया है’। किंतु वह कहाँ उत्पन्न हुआ है, यह मैं नहीं जानता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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