गर्ग संहिता
मथुराखण्ड : अध्याय 24
फिर उस मायावी दैत्य ने अत्यन्त भयंकर दैत्य-सम्बन्धिनी माया प्रकट की। तुरंत ही बड़ी भारी आँधी से प्रेरित प्रलय-काल के मेघों से, जो अन्धकार फैला रहे थे, आकाश आच्छादित हो गया। जपाके पुष्पों के समान रक्त के बिन्दुओं की निरन्तर वर्षा होने लगी। उसके बाद घनीभूत काले मेघों ने घृणित वस्तुओं की वर्षा प्रारम्भ की। पीब, मेद, विष्ठा, मूत्र, मदिरा और मांस से युक्त अमेध्य जल की वर्षा होने लगी। उस वृष्टि से सब ओर हाहाकार होने लगा। दैत्य द्वारा रची गयी को जानकर महाप्रभु बलदेव ने शत्रुसेना को विदीर्ण करने वाले विशाल मुसल को चलाया। वह समस्त अस्त्रों का घातक स्वच्छ और सुदृढ़ अस्त्र अष्ट धातुओं का बना हुआ था। उसकी लंबाई सौ उसकी लम्बाई सौ योजन की थी तथा वह प्रलयाग्नि के समान प्रज्वलित हो रहा था। बलदेवजी का अस्त्र मुसल दसों दिशाओं में घूमता हुआ बड़ी शोभा पा रहा था। उसने आकाश के बादलों को उसी प्रकार विदीर्ण कर दिया, जैसे सूर्य कुहरे को मिटा देता है। उस मुसल को आकाश में गया हुआ देख भगवान बलभद्र ने स्वत: 'हल' नामक अस्त्र उठाया और अपने वैभव से सबको खींच-खींचकर बलपूर्वक बीच में ही विदीर्ण कर दिया। उस दैत्य की माया का नाश हो जाने पर महाबली बलदेव ने अपने बाहुदण्डों से उसके मदोत्कट भुजदण्ड पकड़ लिये और जैसे बालक रूई की राशि को घुमाये, उसी प्रकार इधर-उधर घुमाते हुए उसे पृथ्वी पर इस प्रकार दे मारा मानो किसी बालक ने कमण्डलु पटक दिया हो। उस दैत्य के पतन से पर्वत समुद्र और वन के साथ सारा भूमण्डल एक नाडी (घड़ी) तक काँपता रहा। दैत्य के दाँत टूट गये, नेत्र बाहर निकल आये और वह मूर्च्छित होकर मृत्यु का ग्रास बन गया। इस प्रकार महादैत्य कोल वज्र के मारे हुए वृत्रासुर की भाँति प्राणशून्य हो गया। उस समय स्वर्ग में और धरती पर जय-जयकार होने लगा। देवताओं की दुन्दुभियाँ बज उठीं और वे फूलों की वर्षा करने लगे। इस प्रकार कोल का वध करके श्रीकृष्ण के बडे भाई बलदेव ने कौशाम्बीपुरी राजा कौशारवि को दे दी और स्वयं गर्गाचार्य आदि के साथ वे भागीरथी में स्नान करने के लिये गये। उनका यह कार्य समस्त दोषों के निवारण एंव लोकसंग्रह के लिये था। गर्ग आदि ब्राह्मण आचार्यों ने मंगलमय वेद-मन्त्रों का उच्चारण करते हुए माधव-बलराम को गंगा में स्नान करवाया। विदेहराज ! बलरामजी ब्राह्मणों को एक लाख हाथी, दो लाख रथ, एक करोड़ घोडे़, दस अरब दुधारू गायें, सौ अरब रत्न और जाम्बूनद सुवर्ण के भार दान में देकर मथुरापुरी को चले गये। मिथिलेश्वर ! बलराम ने गंगाजी में जहाँ स्नान किया, उस महापुण्मय तीर्थ विद्वान लोग 'रामतीर्थ' के नाम से जानते हैं। जो मनुष्य कार्तिक की पूर्णिमा एवं कार्तिक मास में रामतीर्थ की गंगा में स्नान करता हैं, वह हरिद्वार की अपेक्षा सौगुने पुण्य का भागी होता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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