गर्ग संहिता
मथुराखण्ड : अध्याय 21
यह सुनकर ब्रह्माजी के अधर क्रोध से फड़कने लगे। उन्होंने कुपित हो शाप देते हुए कहा– ‘दुर्मते ! तुम एक कल्प तक सदा गाने-बजाने में ही लगे रहने-वाले गन्धर्व हो जाओ।’ श्रीराधे ! इस प्रकार ब्रह्मा के शाप से नारदजी उपबर्हण नामक गन्धर्व हो गये। वे एक कल्प तक देवलोक में गन्धर्वराज के पद पर प्रतिष्टत रहे। एक दिन स्त्रियों से घिरे हुए वे ब्रह्माजी के लोक में गये। वहाँ सुन्दरियों में मन लगा रहने के कारण उन्होंने बेताला गीत गाया। तब ब्रह्मा ने पुनः शाप दे दिया- ‘दुर्मते ! तू शूद्र हो जाये।’ इस प्रकार ब्रह्माजी के शाप से वे दासी पुत्र हो गये। राधे ! फिर तदनन्तर पुनःभक्ति भाव से उन्मत्त हो भूतल पर विचरते हुए वे मेरे पदों का गान एवं कीर्तन करने लगे। मुनीन्द्र नारद वैष्णवों में श्रेष्ठ मेरे प्रिय तथा ज्ञान के सूर्य हैं। वे परम भागवत हैं और सदा मुझमें ही मन लगाये रहते हैं। एक दिन विभिन्न लोकों का दर्शन करते हुए गान-तत्पर नारद, जिनकी सर्वत्र गति है इलावृतखण्ड में गये जहाँ प्रिय ! जम्बूफल के रस से प्रकट हुई श्यामवर्णा जम्बू नदी प्रवाहित होती है तथा जाम्बुनद नामक सुवर्ण उत्पन्न होता है। उस देश में रत्नमय प्रासादों से युक्त तथा दिव्य नर-नारियों से भरा हुआ एक ‘वेदनगर नामक नगर हैं, जिस योगी नारद ने देखा। वहाँ कितने ही लोगों के पैर नहीं थे, गुल्फ नहीं थे और घुटने नहीं थे जांघ अथवा जघनभाग का भी कितने ही लोगों के पास अभाव था। वे विकलांग और कृशोदर थे और कितनों के पीठ के मध्यभाग में कूबर निकल आयी थी, दाँत गिर गये थे या ढीले हो गये थे, कंधे ऊँचे थे, मुख झुका हुआ था और कितनों के गर्दन ही नहीं थी। इस प्रकार नारदजी ने वहाँ की स्त्रियाँ और पुरुषों का अंग-भंग देखा। उन सबको देखकर मुनि ने कहा– ‘अहो ! यह क्या बात है ? यह सब तो विचित्र ही दिखायी देता है। आप सब लोगों के मुँह कमल के समान हैं। शरीर दिव्य हैं और वस्त्र भी अच्छे हैं। आप लोग देवता हैं उपदेवता अथवा कोई ऋषि श्रेष्ठ है ! आप सब लोग बाजों के साथ हैं तथा रमणीय गीत गाने में संलग्न हैं। आपके अंग-भंग कैसे हो गये, यह बात शीघ्र मुझे बताइये।’ उनके इस प्रकार पूछने पर वे सब दीलचित्त होकर बोले। रागों ने कहा- मुने ! हमारे शरीर में स्वतः बड़ा भारी दुःख पैदा हो गया है। परंतु यह सब उसके आगे कहना चाहिये, जो उसे दूर कर सके। महर्षें ! हम लोग राग हैं और वेदपुर में निवास करते हैं। मानद ! हम अंग-भंग कैसे हो गये, इसका कारण बताते हैं, सुनिये, हिरण्यगर्भ ब्रह्माजी के एक पुत्र पैदा हुआ है, जिसका नाम है नारद। वह महामुनि प्रेम से उन्मत्त होकर बेसमय ध्रुवपद गाता हुआ इस पृथ्वी विचरा करता है। उसके ताल-स्वर से रहित असामयिक गानों-विगानों से हम सबके अंग-भंग हो गये हैं। उनकी यह बात सुनकर नारदजी को बड़ा विस्मय हुआ। उनका गर्व गल गया और वे रागों से हँसते हुए से बोले। मुनि ने कहा- रागगण ! मुझे शीघ्र बताओ। नारद मुनि को किस प्रकार से काल और ताल का ज्ञान हो सकता है, जिससे वे स्वर युक्त गीत गा सकें। रागों ने कहा- साक्षात वैकुण्ठनाथ की प्रिय भार्याओं में मुख्य सरस्वती देवी नारद को संगीत की शिक्षा दे सके तो वे मुनि कौन-सा राग किस समय किस ताल स्वर से गाना चाहिये, इसे जान सकते हैं। उनकी यह बात सुनकर दीनवत्सल नारद सरस्वती का कृपा-प्रसाद प्राप्त करने लिये तुंरत ही शुभ्रगिरि पर चले गये। वहाँ उन्होंने सौ दिव्य वर्षों तक निरन्तर अत्यन्त दुष्कर तपस्या की। व्रजेश्वरि ! उन्होंने अन्न-जल छोड़कर केवल सरस्वती के ध्यान में मन लगा लिया था। नारदजी की तपस्या से वह पर्वत अपना ‘शुभ्र’ नाम छोड़कर ‘नारदगिरि’ के नाम से प्रख्यात हो गया। वह सारा पर्वत उनकी तपस्या से पवित्र हो गया। तपस्या का पर्यवसान होने पर साक्षात वाग्देवता विष्णुप्रिया श्रीसरस्वती वहाँ आयीं। नारदजी ने उन दिव्यवर्णा देवी देखा। देखकर वे सहसा उठ खडे़ हुए और उन्हें नमस्कार करके परिक्रमापूर्वक नतमस्क हो, वे मुनीश्वर सरस्वती देवी रूप, गुण और माधुर्य की स्तुति करने लगे।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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