गर्ग संहिता
मथुराखण्ड : अध्याय 21
नारदजी बोले- नवीन सूर्य के बिम्ब की द्युति को उगलने और हिलने वाले रत्नमय कर्णफूल, केयूर किरीट और कंकण जिनकी शोभा बढ़ाते हैं तथा जो चमकते और झनकारते हुए नूपुरों के शिकंज-रव से रंजित होती हैं, उन कोटि चन्द्रमाओं से अधिक उज्ज्वल मुख वाली सरस्वती देवी को मैं नमस्कार करता हूँ। जो चंचल चरण और चंचुपुट वाले उड़ते कल हंस पर विराजमान होती तथा निर्मल मुक्ता फलों के अनेक हार करती हैं, उन सौभाग्य शालिनी सरस्वती देवी को मैं प्रणाम करता हूँ। जो अपने दोनों पार्श्व के दो-दो निर्मल हाथों मे क्रमश: वर अभय, पुस्तक और उत्तम वीणा धारण करती हैं, उन जगन्मयी, ब्रह्ममयी, शुभदा एंव मनोहरा सरस्वती देवी को मैं नमस्कार करता हूँ। श्वेतवर्ण की लहरदार साड़ी पहनने वाली अतीव मंगलस्वरूप सरस्वति ! मुझे स्वर-ताल का ज्ञान प्रदान कीजिये, जिससे मैं अविनाशी एंव सर्वोत्कृष्ट रासमण्डल में सर्वोपरि और अद्वितीय संगीतज्ञ हो जाऊँ।[1] श्रीभगवान कहते हैं– श्रीराधे ! सरस्वती का यह नारदोक्त दिव्य स्तोत्र जड़ता का नाश करने वाला है। जो प्रातःकाल उठकर इसका पाठ करेगा वह इस लोक में विद्यावान होगा। तब प्रसन्न हुई वाग्देवता ने महात्मा नारद को भगवत्प्रदत्त स्वरब्रह्म से विभूषित एक वीणा प्रदान की। साथ ही राग-रागिनी उनके पुत्रदेश कालादिकृत भेद तथा ताल, लय और स्वरों का ज्ञान भी दिया। ग्रामों के छप्पन कोटि भेद असंख्य अवान्तर-भेद नृत्य वादित्र तथा सुन्दर मूर्च्छना- इन सबका ज्ञान नारदजी प्राप्त हुआ। वैकुण्ठपति की प्रियाओं में मुख्य सरस्वती देवी ने स्वरगम्य सिद्धपदों द्वारा नारदजी को संगीत की शिक्षा दी। राधे ! नारद को रासमण्डल के उपयुक्त अद्वितीय रागोभ्दावक बनाकर विष्णुवल्लभा वाग्देवी वैकुण्ठधाम को चलीं। इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में श्रीमथुरा खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में 'नारदोपाख्यान’ नामक इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ नवार्कबिम्बद्युतिमुदलद्धलत्ताटङ्ककेयूरकिरिटङ्कणाम्। स्फरत्क्वणन्नूपुररावरञ्जितां नमामि कोटीन्दुमखीं सरस्वतीम् ।।
वन्दे सदाहं कलहंसे उद्गते चलत्पदे चंचलचंचलसम्पपुटे। निर्धौतमुक्तफलहारसंचयं संधारयन्तीं सुभगां सरस्वतीतम् ।।
वराभयं पुस्तकवल्लकीयुतं परं दधानां विमले करद्वये। नमाम्यंह त्वां शुभदां सरस्वतीं जगन्मयीं ब्रह्ममयीं मनोहराम् ।।
तरगिंतक्षौमसिताम्बरे परे देहि स्वरज्ञानमतीवमंग्ले। येनाद्वितीयो हि भवेयमक्षरे सर्वोपरि स्यां पररासमण्डले ।।-(गर्ग0 मथुरा0 21।42-44)
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