गर्ग संहिता
मथुराखण्ड : अध्याय 17
अजितपदाश्रिता गोपियाँ बोलीं- हमारे दोनों नेत्र श्रीकृष्ण में लग गये हैं, दसों दिशाओं मे दौड़ लगाने पर भी अन्यत्र कहीं उसी प्रकार नहीं टिक पाते, जैसे कमल से जिसकी लगन लगी है, वह भ्रमर अन्य फूलों पर कदापि नहीं जाता। श्रीसखियों ने कहा- लोग अपनी कृपणता से यश को, क्रोध से गुणसमूह के उदय को, दुर्व्यसनों से धन को तथा कपटपूर्ण बर्ताव से मैत्री को नष्ट कर देते हैं ।।30।। मिथिलावासिनी स्त्रियाँ बोली- धन देकर तन की रक्षा करे, तन देकर लाज बचाये तथा मित्र का कार्य सिद्ध करने के लिये आवश्यकता पड़ जाये तो धन, तन और लाज-तीनों का उत्सर्ग कर दे। कोसलप्रान्तवासिनी गोपियों ने कहा - वियोगजनित दु:ख की दशा को जीवात्मा के बिना दूसरा कोई नहीं जानता है, परंतु वह उसे बताने में असमर्थ है। (बताती है वाणी, किंतु उसे उस दु:ख का अनुभव नहीं है।) भले ही बाणों से आघात से हृदय विदीर्ण हो जाय, किंतु कभी किसी को प्रिय-वियोग का कष्ट न प्राप्त हो। अयोध्यापुरवासिनी गोपियाँ बोलीं- पहले निराश करके फिर आशा दे दी और अपने मथुरा की आशा (दिशा) में चले गये ? उसके ऊपर हमारे लिये योग लिखा है। अहो ! निर्मोही जनों का चित्र (या चित्त) विचित्र होता है। पुलिन्दी गोपियों ने कहा- पूर्वकाल की बात है, दण्डकवन में शूर्पणखा अत्यन्त विहृल होकर इन्हें अपना पति बनाने के लिये इनके पास आयी, किंतु इन्होंने सुमित्रा कुमार को प्रेरणा देकर बलपूर्वक उसे कुरूप बना दिया। ऐसे पुरुष से आप सबको कृपा की आशा कैसे हो रही है ? सुतलवासिनी गोपियाँ बोलीं- राजा बलि भगवत्भक्त, सत्यपरायण और बहुत अधिक दान करने वाले थे, परंतु उनसे भेंट-पूजा लेकर जिन्होंने कुपित हो उन्हें बन्धन में डाल दिया था, उस वामनरूपधारी कपट-ब्रह्मचारी बने हुए श्रीहरि की न जाने लक्ष्मी जी या अन्य भक्तजन कैसे सेवा करते हैं ? जालंधरी गोपियों ने कहा- पूर्वकाल में असुर-श्रेष्ठ भक्तप्रवर कयाधूकुमार प्रह्लाद को बहुत अधिक कष्ट सहन करना पड़ा, तब कहीं नृसिंहरूप धारण करके इन्होंने उनकी सहायता की। अहो ! इनमें निष्ठुरता की पराकाष्ठा प्रत्यक्ष देखी जाती है। भूमिगोपियाँ बोलीं - अहो ! अत्यन्त निर्मोही जनका चरित्र अत्यन्त विचित्र होता है, वह कहने-योग्य नहीं हैं। मुख से और ही बात निकलेगी, किंतु हृदय में कोई और ही विचार रहेगा। ऐसे लोगों को देवता भी नहीं समझ पाते, फिर मनुष्य कैसे जान सकता है ?
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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