गर्ग संहिता
मथुराखण्ड : अध्याय 9
तदनन्तर मनोहर बलराम और श्रीकृष्ण वायु के समान वेगशाली रथ के द्वारा यमराज की विशालपुरी संयमनी में गये। वहाँ उन्होंने मेघ-गर्जना के समान भयंकर लोक-प्रचण्ड पांचजन की ध्वनि सब ओर फैला दी। उसे सुनकर सभासदों सहित यमराज काँप उठे। यमपुरी के चौरासी लाख नरकों में पड़े हुए पापियों में से जिन-जिनके कानों में वह ध्वनि पड़ी, वे सब-के-सब मोक्ष पा गये। यमराज उसी क्षण पूजा और उपहार की सामग्री लेकर श्रीकृष्ण–बलराम के चरणप्रान्त में आ गिरे। वे उनके तेज से पराभूत हो गये थे, अत: हाथ जोड़कर बोले। यमराज ने कहा– हे हरे ! हे कृपासिन्धों ! हे महाबली बलराम ! आप दोनों असंख्य ब्रह्माण्डों के अधिपति तथा परिपूर्णतम परमेश्वर है। आप दोनों देवता पुराण-पुरुष, सबसे महान, सर्वेश्वर तथा सम्पूर्ण जगत के लोगों के अधीश्वर हैं। आज भी आप दोनों सबके ऊपर विराजमान हैं। परमेश्वरों ! आप अपनी वाणी द्वारा हमें आज्ञा दें कि हमें क्या सेवा करनी है[1]। श्रीभगवान बोले– महामते लोकपाल यम ! मेरे गुरुपुत्र को ले आओ और मेरी वाणी का आदर करते हुए कहीं भी न्यायोचित रीति से राज्य करो। नारदजी कहते हैं– राजन् ! उसी समय यमराज ने गुरुपुत्र को ले आकर श्रीकृष्ण के हाथ में सौंप दिया। फिर साक्षात श्रीहरि उसे लेकर अवन्तिकारपुरी में आये और उन्होंने श्रीगुरु को उनका वह शिशुपुत्र समर्पित कर दिया। फिर गुरु के आशीर्वाद से सम्भावित हो, उन दोनों भाइयों ने हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया और वे रथ पर चढ़कर मथुरापुरी में आ गये। वहाँ यदुवंशियों ने उनका बड़ा सम्मान किया। एक दिन समस्त कारणों के भी कारण श्रीकृष्ण अपने भक्त पाण्डवों का स्मरण करते हुए बलरामजी के साथ अक्रूर के घर गये। नरेश्वर ! अक्रूर सहसा उठकर खडे़ होय गये और बड़ी प्रसन्नता के साथ उन्हें हृदय से लगाकर, षोडश उपचारों द्वारा उनका पूजन करके हाथ जोड़ सामने खडे़ हो गये। उनका मनोरथ पूर्ण हो चुका था। उन्होंने प्रेमानन्द के आँसू बहाते हुए उनसे कहा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हे हरे हे कृपासिन्धो राम राम महाबल। असंख्यब्रह्माण्डपती परिपूर्णतमौ युवाम्।। देवौ पुराणौ पुरुषौ महान्तौ सर्वेश्वरौ सर्वजगज्जनेशौ। अद्यैव सर्वोपरिवर्तमानौ गिरा निजाज्ञां वदतं परेशौ।। (गर्ग0 मथुरा0 9। 32-33)
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