गर्ग संहिता
मथुराखण्ड : अध्याय 9
अक्रूर बोले- प्रभुओं ! जिन्होंने मार्ग में, मैंने जो कुछ कहा या सोचा था, वह सब पूर्ण कर दिया, उन्हीं आप दोनों- बलराम और श्रीकृष्ण को मेरा नित्य बारंबार नमस्कार है। आप दोनों समस्त लोकों में सर्वाधिक सुन्दर हैं। जन-भूषणों में भी उत्तम हैं। सम्पूर्ण जगत को बाहर और भीतर से भी प्रकाशित करने वाले हैं। इस समय गौ, ब्राह्मण, साधु, वेद, धर्म तथा देवताओं की रक्षा के लिये आप दोनों यदुकुल में अवतीर्ण हुए हैं। परिपूर्ण तेजस्वी आप दोनों परमेश्वर कंसादि दैत्यों का विनाश करने के लिये गोलोकधाम से भारतवर्ष के भूमण्डल में पधारे हैं। मैं नित्य–निरन्तर आप दोनों को प्रणाम करता हूँ[1]। श्रीभगवान बोले – आप हमारे बड़े-बढे़ गुरुजन और धैर्यवान हैं। मैं आपके आगे बालक हूँ। महामते ! संत पुरुष कभी अपनी बड़ाई नहीं करते। दानपते ! पाण्डवों का कुशल-समाचार जानने के लिये आप शीघ्र हस्तिनापुर जाइये और वहाँ उन सबसे मिल-जुलकर लौट आइये। नारदजी कहते हैं– राजन् ! उस समय अक्रूर से यों कहकर समस्त कार्यों का सम्पादन करने वाले भक्तवत्सल भगवान श्रीकृष्ण बलरामजी के साथ वसुदेवजी के भवन में लौट आये। उधर अक्रूर कौरवेन्द्रपुरी हस्तिनापुर में जाकर पाण्डवों से मिले और पुन: वहाँ से लौटकर उन्होंने श्रीकृष्ण से सारा समाचार कह सुनाया। अक्रूर कहा– भगवन् ! पाण्डव लोग कौरवों के दिये हुए दु:ख भोग रहे हैं। आप दोनों के सिवा दूसरा कोई भी उनकी सहायता करने वाला नहीं है। पाण्डु के मर जाने पर पृथ्वी के सभी पुत्र आप दोनों के चरणाविन्दों में चित्त लगाये बैठे हैं। नारदजी कहते हैं– राजन् ! अक्रूरजी के मुख से यह समाचार सुनकर भगवान श्रीकृष्ण ने कौरवों का आधा राज्य बलपूर्वक पाण्डवों को दे दिया। तदनन्तर अपनी कही हुई बात को याद करके भगवान श्रीकृष्ण उद्धव को साथ ले कुब्जा के महामंगल संयुक्त भवन में गये। श्रीहरि को आया देख परम रूपवती कुब्जा ने तुरंत ही भक्तिभाव से पाद्य आदि उपचार समर्पित करके अपने प्राणवल्लभ का पूजन किया। कुब्जा के उत्तम भवन की दीवारों में सोने और रत्न जडे़ गये थे। उस रूपवती रमणी के साथ श्रीहरि उसी प्रकार शोभित हुए, जैसे वैकुण्ठधाम में रमा के साथ रमापति विष्णु शोभा पाते हैं। राजन् ! साक्षात परिपूर्णतम भगवान श्रीकृष्ण स्वयं जिस सैरन्ध्री के पति हो गये, उसका महान तप कैसा आश्चर्यजन है। विदेहराज ! वहाँ लीला से मानव-शरीर धारण करने वाले भगवान श्रीहरि आठ दिनों तक टिके रहकर नवें दिन वसुदेवजी के भवन में लौट आये। विदेहनरेश ! मथुरा में इस प्रकार जो श्रीकृष्ण का चरित्र है, वह समस्त पापों को हर लेने वाला, पुण्दायक तथा आयु की वृद्धि का उत्तम साधन है। वह मनुष्यों को चारों पदार्थ देने वाला तथा श्रीकृष्ण को भी वश में कर लेने वाला है। तुमने जो कुछ पूछा था, वह सब मैंने तुमसे कह सुनाया। अब और क्या सुनना चाहते हो ?। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ युवाभ्यां रामकृष्णाभ्यां ताभ्यां नित्यं नमो नम:। याभ्यां मार्गे यदुक्तं मे पूर्णं तच्च कृतं प्रभू।।
लोकाभिरामौ जनभूषणोत्तमौ चान्तर्बहि: सर्वजगत्प्रदीपकौ। गोविप्रसाधुश्रुतिधर्मदेवतारक्षार्थमद्यैव यदौ: कुले गतौ।।
कंसादिदैत्येन्द्रविनाशहेतवे गोलोकलोकात् परिपूर्ण तेजसौ। समागतौ भारतभूमिमण्डले युवां परेशौ सततं नतोऽस्म्यहम्।। (गर्ग0 मथुरा0 9। 40-42)
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