गर्ग संहिता
मथुराखण्ड : अध्याय 7
तदनन्तर माया से बालक रूप धारा किये बलराम और श्रीकृष्ण दोनों भाई मल्लों के खेल देखने के लिये उस रंगशाला में आये। रंगमण्डप के द्वार पर कुवलयापीड़ नामक हाथी खड़ा था, जिसके कुम्भस्थल पर गोमुत्र में सने हुए सिन्दूर ओर कस्तूरी से पत्र-रचना की गयी थी। रत्नमय कुण्डलों से मण्डित उस महामत्त गजरात के गण्डस्थल से मद झर रहा था। द्वार पर हाथी को खड़ा देख श्रीकृष्ण ने महावत से गंभीर वाणी में कहा– ‘अरे ! इस गजराज को दूर हटा ले और मेरी इच्छा के अनुसार मार्ग दे दे। नहीं तो तुझको और तेरे हाथी को अभी भूतलपर मार गिराउँगा’। तब कुपित हुए महावत ने सम्पूर्ण दिशाओं में जोर-जोर से चिग्घाड़ते हुए उस मतवाले हाथी को नन्दनन्दन पर आक्रमण करने के लिये आगे बढ़ाया। गजराज ने तत्काल ही श्रीहरि को सूँड से पकड़कर उठा लिया। परंतु अपना भार अधिक बढ़ाकर श्रीहरि उसकी पकड़ से बाहर निकल गये। जैसे वृन्दावन के निकुंजों में श्रीहरि इधर-उधर लुकते-छिपते थे, उसी प्रकार इधर-उधर घूमकर वे कुवलयापीड के पैरों के बीच में छिप गये। हाथी ने अपनी सूँड बढाकर उन्हें पकड़ लिया, किंतु उसकी सूँड को दोनों हाथों से दबाकर श्रीहरि पीछे की ओर से निकल गये। तब हाथी ने बगल की दिशा में घूमकर उन्हें पकड़ने चेष्टा की, किंतु माधव उसके मस्तक पर मुक्के से प्रहार करके आगे की ओर भागे। विदेहराज ! उस गजराज भागते हुए श्रीहरि पीछा किया। उस समय मथुरापुरी में कोहराम मच गया। फिर श्रीहरि चक्कर देकर इधर पीछे की ओर निकल आये। उधर महाबली बलदेव ने, जैसे गरुड़ सर्प को पकड़ते है, उसी प्रकार अपने बाहुदण्डों से उसकी पूँछ पकड़कर उसे पीछे की ओर खींचा। तब हँसते हुए भगवान श्रीकृष्ण ने अपने दोनों हाथों से बलपूर्वक उसकी सूँड पकड़कर उसी तरह आगे की ओर खींचना आरम्भ किया, जैसे मनुष्य कूएँ रस्सी को खींचता है। नृपेश्वर ! उन दोनों भाइयों के आकर्षण से वह हाथी व्याकुल हो उठा। तब सात महावत बलपूर्वक उस हाथी पर चढ़ गये। साथ ही दूसरे महावत श्रीकृष्ण का वध करने के लिय तीन सौ हाथी वहाँ ले आये। महावतों के अंकुश की चोट करने से कुपित हुआ वह मतवाला हाथी पुन: श्रीकृष्ण की ओर झपटा। तब बलदेवजी के देखते-देखते साक्षात भगवान श्रीकृष्ण ने उसकी सूँड पकड़ ली और इधर-उधर घुमाकर उसे उसी प्रकार पृथ्वी पर दे मारा, जैसे कोई बालक कमण्डलु पटक दे। उस पर चढे हुए सातों महावत इधर-उधर दूर जा गिरे और वहाँ जुटे हुए साधु-पुरुषों के देखते-देखते वह हाथी प्राणशून्य हो गया। विदेहराज ! उसके शरीर से एक ज्योति निकली और श्रीघनश्याम में विलीन हो गयी।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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