गर्ग संहिता
मथुराखण्ड : अध्याय 7
महाबली बलराम और श्रीकृष्ण ने उस हाथी के दोनों दाँत उखाड़ लिये और जैसे दो हिंसक बच्चे बहुत-से मृगों का संहार कर डालें, उसी प्रकार समस्त महावतों को मौत के घाट उतार दिया। हाथी के मारे जाने पर जो अन्य महावत बचे थे, वे सब इधर-उधर भागकर उसी प्रकार छिप गये, जैसे वर्षाकाल व्यतीत हो जाने पर बादल जहाँ-के-तहाँ विलीन हो जाते हैं। इस प्रकार कुवलयापीड का वध करके पसीने की बूँदों और हाथी के मद से अंकित हुए बलराम और श्रीकृष्ण, दोनों बन्धु गोपों तथा शेष दर्शनार्थियों के मुख से अपनी जय-जयकार सुनते हुए बड़ी उतावली के साथ रंगशाला में प्रविष्ट हुए। उस समय उन दोनों के मुख अधिक परिश्रम के कारण लाल हो गये थे, उनके हाथों में हाथी के दाँत थे। वे दोनों दिशाओं में एक साथ चलने वाले अनिल और अनल की भाँति बड़े वेग से रंगभूमि में पहुँचे। उस समय मल्लों ने उन्हें महामल्ल समझा और नरों ने नरेन्द्र ! नारियों ने उन्हें कामदेव माना और गोपगणों ने व्रज का स्वामी। पिता की दृष्टि में वे पुत्र जान पड़े और दुष्टों को दण्डधारी यमराज के समान प्रतीत हुए। कंस ने उनको अपनी मृत्यु समझा और ज्ञानी पुरुषों ने उन्हें विराट ब्रह्म के रूप में देखा। उस समय बलराम के साथ रंगशाला में गये हुए श्रीकृष्ण को योगिशिरोमणि महात्मा पुरुषों ने परमतत्त्व के रूप में अनुभव किया। सभी तरह के लोगों ने अपनी पृथक-पृथक भावना के अनुसार उन परिपूर्ण देव श्रीहरि को विभिन्न रूपों में देखा और समझा। हाथी को मारा गया सुनकर और उन महाबली बन्धुओं को देखकर मनस्वी कंस मन-ही-मन भयभीत हो उठा तथा मंचों पर बैठे हुए दूसरे-दूसरे लोग मन-ही-मन हर्ष से उल्लसित हो उठे और जैसे चन्द्रमा को देखकर चकोर सुखी होते है, उसी प्रकार वे उन्हें देखकर परमान्द में निमग्न हो गये। नगर के लोग अत्यन्त उत्सुक हो एक-दूसरे के कान-से-कान सटाकर परस्पर कहने लगे- 'ये दोनों वसुदेवनन्दन साक्षात परमपुरुष परमेश्वर हैं। अहो! व्रजमण्डल अत्यन्त रमणीय एवं श्रेष्ठ है, जहाँ ये साक्षात माधव विचरते रहे हैं और जिनका आज दुर्लभ दर्शन पाकर हम सर्वतो-भाव से कृतार्थ हो रहे हैं। नारदजी कहते हैं- मैथिल ! जब पुरवासी लोग इस प्रकार बात कर रहे थे और भाँति-भाँति के बाजे बज रहे थे, उस समय चाणूर ने बलराम और श्रीकृष्ण दोनों के पास जाकर कहा। चाणूर बोला- हे राम ! हे कृष्ण ! आप दोनों बड़े बलवान है, अत: महराज के सामने अपने बल का प्रदर्शन करते हुए युद्ध कीजिये। यदुकुलतिकल महाराज कंस यदि इस युद्ध में प्रसन्न हो गये तो आप लोगों की और हमारी कौन-कौन-सी भलाई नहीं होगी ? (अर्थात् सब होगी)। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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