गर्ग संहिता
मथुराखण्ड : अध्याय 5
कुछ स्त्रियाँ महलों की छत से, कुछ जालीदार झरोखों के छेद से, कोई-कोई दीवारों की ओट से कोई खिड़कियों पर लगे हुए पर्दे हटाकर और कुछ नारियाँ दरवाजे के किवाडों से बाहर निकलकर घर के चबूतरों पर से उन्हें देखने लगीं। भगवान श्रीकृष्ण का एक चंचल कुन्तलभाग उनके मुख पर लटक रहा था मानो उन्होंने अपने सामने वाले मनुष्यों के मन को हर लेने के लिये उसे धारण किया था तथा दूसरा कुन्तल भाग उन्होंने मुकुट के नीचे दबाकर पीछे की ओर लटका दिया था, मानो पीछे से आने वाले लोगों के मन को मोहने के लिये उसे उन्होंने पृष्ठभाग की ओर धारण किया था। उनका आधा पीताम्बर कमर में बँधा हुआ चमक रहा था और आधा कंधे पर पड़ा नील मेघ में विद्युत की-सी शोभा धारण कर रहा था। राजन् ! उन्होंने अपने एक हाथ में कमल और वक्ष:स्थल में वैजयन्ती माला धारण कर रखी थी। कानों में नवीन मकराकार कुण्डल पहने तथा बाल- सूर्य के समान कान्तिमान सोने के बाजूबंद से विभूषित बाहुमण्डल वाले, असंख्य ब्रह्माण्डाधिपति परात्पर भगवान वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण को देखकर समस्त पुरवासिनी स्त्रियाँ मोहित हो गयीं । नागरी स्त्रियाँ बोलीं- अहो ! वह वृन्दावन कैसा रमणीय है, जहाँ ये नन्दनन्दन स्वयं निवास करते हैं। वे समस्त गोपगण भी धन्य हैं, जो प्रतिदिन इनके मनोहर रूप का दर्शन करते रहते हैं। वे गोपांग्नाएँ भी धन्य हैं- न जाने उन्होंने कौन-सा पुण्य किया है जो रास-रंग में वे बारंबार उनके अधरामृत का पान किया करती हैं। नारदजी कहते हैं- राजन् ! उस राजमार्ग पर एक कपड़ा रँगने वाला रजक जा रहा था। वह बड़ा घमंडी और उन्मत्त जान पड़ता था। ग्वालबालों की अनुमति से मधुसूदन ने उससे कहा- 'मेरे महा बुद्धिमान मित्र ! हमारे लिये सुन्दर वस्त्र दो, यदि दे दोगे तो तुम्हारा परम कल्याण होगा, इसमें संशय नहीं है।' वह रजक कंस का सेवक ओर बड़ा भारी दुष्ट था। श्रीकृष्ण की बात सुनकर घृत से अभिषिक्त अग्नि की भाँति वह अत्यन्त रोष से प्रज्वलित हो उठा और उस राजमार्ग पर माधव से इस प्रकार बोला। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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