गर्ग संहिता
मथुराखण्ड : अध्याय 5
नारद जी कहते हैं- राजन् ! जब इस प्रकार चकित होकर भगवान का वैभव देखते हुए अक्रूरजी इस प्रकार स्तुति कर रहे थे, उसी प्रकार भगवान श्रीकृष्ण अपने लोकसहित वहीं अन्तर्धान हो गये। तब उन्हें नमस्कार करके नैमित्तिक कर्म पूर्ण करने के पश्चात् अक्रूर श्रीकृष्ण को परब्रह्मस्वरूप जानकर विस्मयपूर्वक रथ पर आये। घनवत गंभीर नाद करने वाले उस वायु वेगशाली रथ के द्वारा अक्रूर ने बलराम और श्रीकृष्ण को दिन डूबते-डूबते मथुरा पहुँचा दिया। वहाँ नगर के उपवन में नन्दराज को देखकर यदूत्तम भगवान श्रीकृष्ण हँसते हुए मेघ के समान गंभीर वाणी में अक्रूर जी से बोले। श्रीभगवान ने कहा- मानद ! अब आप अपने रथ के द्वारा मथुरापुरी में पधारें। मैं पीछे ग्वाल-बालों के साथ आउँगा । अक्रूर ने कहा- देवदेव ! जगन्नाथ ! गोविन्द ! पुरुषोत्तम ! प्रभो ! आप अपने बड़े भाई तथा ग्वालों सहित मेरे घर पर चलें। जगत्पते ! अपने चरणारविन्दों की धूल से आज मेरा घर पवित्र कीजिये। मैं आपको साथ लिये बिना अपने घर नहीं जाउँगा । श्रीभगवान ने कहा- अक्रूरजी ! मैं युदवंशियों के वैरी कंस को मारकर बलरामजी तथा गोप-बन्धुओं के साथ आपके भवन में अवश्य आउँगा और आपका प्रिय करूँगा। नारदजी कहते हैं- राजन् भगवान श्रीकृष्ण वही ठहर गये और अक्रूर ने मथुरापुरी में प्रवेश किया। वहाँ कंस को श्रीकृष्ण के आगमन का समाचार देकर वे अपने घर चले गये। दूसरे दिन बलराम और गोप-बालकों के साथ मथुरापुरी को देखने के लिये उद्यत हुए गोविन्द की ओर देखकर नन्द ने यह बात कही। 'वत्स ! सीधी तरह से मथुरापुरी को देखकर तुम सब लोग लौट आना। इसे गोकुल न समझो, यहाँ कंस का महाभयंकर राज्य है।' 'बहुत अच्छा'- कहकर भगवान श्रीकृष्ण नन्द द्वारा प्रेरित बड़े-बुढ़े ग्वालों और ग्वालबालों के साथ पुरी में गये। बलरामजी भी उनके साथ थे। दुर्ग से युक्त वह पुरी स्वर्ण एवं रत्नजटित सुन्दर गृहों तथा गगनचुम्बी महलों से देवताओं की राजधानी अमरावती के समान शोभा पाती थी। यमुना के तट पर रत्नों की सीढियाँ बनी थीं। वहाँ चंचल लहरों का कौतुहल देखते ही बनता था। उन सबसे तथा दिव्य नर-नारियों से युक्त वह नगरी अलकापुरी के समान शोभा पा रही थी। मथुरापुरी की शोभा निहारते और धनिकों के भवनों को देखते हुए श्रीकृष्ण ग्वाल-बालों के साथ राजमार्ग (मुख्य सड़क) पर आ गये। वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण के आगमन का समाचार सुनकर मथुरापुरी की स्त्रियाँ, जो उनके विषय में बहुत कुछ सुन चुकी थीं, सारे काम-काज और शिशुओं को भी छोड़कर उन्हें देखने के लिये के इस प्रकार दौड़ीं, मानों नदियाँ समुद्र की ओर भागी जा रही हों। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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