गर्ग संहिता
वृन्दावन खण्ड : अध्याय 26
राधा बोली-ओ मूर्ख! तू बाप की स्तुति करके मुझ माता की निन्दा करता है! अत: दुर्बुद्धे ! राक्षस हो जा और गोलोक से बाहर चला जा। श्रीदामा बोला-शुभे! श्रीकृष्ण सदा तुम्हारे अनुकूल रहते हैं, इसीलिये तुम्हें इतना मान हो गया है। अत: परिपूर्णतम परमात्मा श्रीकृष्ण से भूतल पर तुम्हारा सौ वर्षों कि लिये वियोग हो जायगा, इसमें संशय नहीं है। श्री नारद जी कहते हैं- राजन ! इस प्रकार परस्पर शाप देकर अपनी ही करनी से भयभीत हो, जब राधा और श्रीदामा अत्यंत चिंता में डूब गये, तब स्वयं भगवान श्रीकृष्ण वहाँ प्रकट हुए । श्रीभगवान ने कहा- राधे ! मैं अपने निगम-स्वरूप वचन को तो छोड़ सकता हूँ, किंतु भक्तों की बात अन्यथा करने में सर्वथा असमर्थ हूँ।[1] कल्याणि राधिके! शोक मत करो, मेरी बात सुनो। वियोग-काल में भी प्रतिमास एक बार तुम्हें मेरा दर्शन हुआ करेगा। वाराहकल्प में भूतल का भार उतारने और भक्तजनों को दर्शन देने के लिये मैं तुम्हारे साथ पृथ्वी पर चलूँगा। श्रीदामन् ! तुम भी मेरी बात सुनो। तुम अपने एक अंश से असुर हो जाओ। वैवस्वत मन्वन्तर में रासमण्डल में आकर जब तुम मेरी अवहेलना करोगे, तब मेरे हाथ से तुम्हारा वध होगा, इसमें संशय नहीं है। तत्पश्चात् फिर मेरे वरदान से तुम अपना पूर्व शरीर प्राप्त कर लोगे। श्री नारद जी कहते हैं- राजन ! इस प्रकार शापवश महातपस्वी श्रीदामा ने पूर्वकाल में यक्षलोक में सुधन के घर जन्म लिया। वह शंखचूड़ नाम से विख्यात हो यक्षराज कुबेर का सेवक हो गया। यही कारण है कि शंखचूड़ की ज्योति श्रीदामा में लीन हुई । भगवान श्रीकृष्ण स्वात्माराम हैं, एकमात्र अद्वितीय परमात्मा हैं। वे अपने ही धाम में लीलापूर्वक सारा कार्य करते हैं। जो सर्वेश्वर, सर्वरूप एवं महान आत्मा हैं, उनके लिये यह सब कार्य अद्भुत नहीं है; मैं उन श्रीकृष्णचन्द्र को नमस्कार करता हूँ । विदेहराज! यह मनोहर वृन्दावनखण्ड मैंने तुम्हारे सामने कहा है। जो नरश्रेष्ठ इस चरित्र का श्रवण करता है, वह पुण्यतम परमपद को प्राप्त होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वचनं वै स्वनिगमं दूरीकर्तुं क्षमोऽस्म्यहम्। भक्तानां वचनं राधे दूरीकर्तुं न च क्षम: ।। (गर्ग0 वृन्दावन0 26। 38)
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