गर्ग संहिता
वृन्दावन खण्ड : अध्याय 26
सती विरजा पुत्र को आश्वासन दे उसे दुलारने लगी। उस समय साक्षात भगवान वहाँ से अंतर्धान हो गये। तब श्रीकृष्ण के विरह से व्याकुल हो, रोष से अपने पुत्र को शाप देते हुए विरजा ने कहा- ‘दुर्बुद्धे ! तू श्रीकृष्ण से वियोग कराने वाला है, अत: जल हो जा; तेरा जल मनुष्य कभी न पीयें।’ फिर उसने बड़ों को शाप देते हुए कहा-‘तुम सब-के-सब झगड़ालू हो; अत: पृथ्वी पर जाओ और वहाँ जल होकर रहो। तुम सबकी पृथक-पृथक गति होगी। एक-दूसरे से कभी मिल न सकोगे। सदा ही प्रलयकाल में तुम्हारा नैमित्तिक मिलन होगा’। श्री नारद जी कहते हैं- राजन ! इस प्रकार माता के शाप से वे सब पृथ्वी पर आ गये और राजा प्रियव्रत के रथ के पहियों से बनी हुई परिखाओं में समाविष्ट हो गये। खारा जल, इक्षुरस, मदिरा, घृत, दधि, क्षीर तथा शुद्ध जल के वे सात सागर हो गये। राजन ! वे सातों समुद्र अक्षोभ्य तथा दुर्लंघय हैं। उनके भीतर प्रवेश करना अत्यंत कठिन है। वे बहुत ही गहरे तथा लाख योजन से लेकर क्रमश: द्विगुण विस्तार वाले होकर पृथक-पृथक द्वीपों में स्थित हैं। पुत्रों के चले जाने पर विरजा उनके स्नेह से अत्यंत व्याकुल हो उठी। तब अपनी उस विरहिणी प्रिया के पास आकर श्रीकृष्ण ने वर दिया- ‘भीरू ! तुम्हारा कभी मुझसे वियोग नहीं होगा। तुम अपने तेज से सदैव पुत्रों की रक्षा करती रहोगी।’ विदेहराज! तदनंतर श्रीराधा को विरह-दु:ख से व्यथित जान श्यामसुन्दर श्रीहरि स्वयं श्रीदामा के साथ उनके निकुंज में आये। निकुंज के द्वार पर सखा के साथ आये हुए प्राणबल्लभ की ओर देखकर राधा मानवती हो उनसे इस प्रकार बोलीं। श्रीराधा ने कहा- हरे ! वहीं चले जाओ, जहाँ तुम्हारा नया नेह जुड़ा है। विरजा तो नदी हो गयी, अब तुम्हें उसके साथ नद हो जाना चाहिये। जाओ, उसी के कुंज में रहो। मुझसे तुम्हारा क्या मतलब है ? श्री नारद जी कहते हैं- राजन ! यह सुनकर भगवान विरजा के निकुंज में चले गये। तब श्रीकृष्ण के मित्र श्रीदामा ने राधा से रोषपूर्वक कहा। श्रीदापा बोला-राधे! श्रीकृष्ण साक्षात परिपूर्णतम भगवान हैं। वे स्वयं असंख्य ब्रह्माण्डों के अधिपति और गोलोक के स्वामी के रूप में विराजमान हैं। परात्पर श्रीकृष्ण तुम-जैसी करोड़ों शक्तियों को बना सकते हैं। उनकी तुम निन्दा करती हो ? ऐसा मान न करो, न करो । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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