गर्ग संहिता
गोलोक खण्ड : अध्याय 11
बलवानों में भी सबसे अधिक बलिष्ठ यह काल भी जिन पर शासन करने में समर्थ नहीं है, माया भी जिन पर कोई प्रभाव नहीं डाल सकती तथा नित्य शब्द (वेद) जिनको अपना विषय नहीं बना पाता, उन परम अमृत, प्रशांत, शुद्ध, परात्पर पूर्ण ब्रह्मस्वरूप आप भगवान की हम शरण में आये हैं। जिन परमेश्वर के अंशावतार, अंशांशावतार, कलावतार, आवेशावतार तथा पूर्णावतार सहित विभिन्न अवतारों द्वारा इस विश्व के सृष्टि पालन आदि कार्य सम्पादित होते हैं, उन्हीं पूर्ण से भी परे परिपूर्णतम भगवान श्रीकृष्ण को हम प्रणाम करते हैं। प्रभो ! अतीत, वर्तमान और अनागत (भविष्य) मन्वन्तरों, युगों तथा कल्पों में आप अपने अंश और कला द्वारा अवतार-विग्रह धारण करते हैं। किंतु आज ही वह सौभाग्यपूर्ण अवसर आया है, जबकि आप अपने परिपूर्णतम धाम (तेज:पुंज) का यहाँ विस्तार कर रहे है ! अब इस परिपूर्णतम अवतार द्वारा भूतल पर धर्म की स्थापना करके आप लोक में मंगल (कल्याण) का प्रसार करेंगे। आनन्दकन्द ! देवकीनन्दन ! आपकी जो चरणरज विशुद्ध अंत:करण वाले योगियों के लिये भी दुर्लभ और अगम्य है, वही उन बड़भागी भक्तों के लिये परम सुलभ है, जो अपने निर्मल हृदय में भक्तियोग धारण करके, सदा प्रीतिसर में निमग्न हो, द्रवित-चित्त रहते हैं। शिशुरूप में मन्द-मन्द विचरने वाले आपके चरणारविन्दों के मकरन्द एवं पराग को हम सानुराग सिर पर धारण करें, यही हमारी आंतरिक अभिलाषा है। आप पहले सी ही परम कमनीय कलेवरधारी हैं और यहाँ इस अवतार में भी उसी कमनीय रूप से आप सुशोभित होंगे। आपका रूप कोटिशत कामदेवों को भी मोहित करने वाला और परम अद्भुत है। आप गोलोकधाम में धारित दिव्य दीप्ति राशि को यहाँ भी धारण करेंगे। सर्वोत्कृष्ट धर्मधन के धारियता आप श्रीराधाबल्लभ को हम प्रणाम करते हैं।[1] उस समय मुनियों सहित ब्रह्मा आदि सब देवता श्री हरि को नमस्कार करके उनकी महिमा का गान तथा स्वभाव की प्रशंसा करते हुए प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने धाम को चले गये। मिथिला-सम्राट बहुलाश्व ! तदनन्तर जब श्री हरि के प्राकट्य का समय आया, आकाश स्वच्छ हो गया। दसों दिशाएँ निर्मल हो गयीं। तारे अत्यंत उद्दीप्त हो उठे। भूमण्ड ल में प्रसन्नता छा गयी। नदी, नद, सरोवर और समुद्र के जल स्वच्छ हो गये। सब ओर सहस्र दल तथा शतदल कमल खिल उठे। वायु के स्पर्श से उनके सुगन्ध युक्त पराग सब दिशाओं में फैलने लगे। उन कमलों पर भ्रमर गुंजार करने लगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यज्जागरादिषु भवेषु परं ह्यहेतुर्हेतु: स्विदस्य विचरन्ति गुणाश्रयेण । नैतद् विशन्ति महदिन्द्रियदेवसंघास्तस्मै नमोऽग्निमिव विस्तृदतविस्फुतलिंगा: ।। नैवेशितुं प्रभुरयं बलिनां बलीयान् माया न शब्द उत नो विषयी करोति। तद्ब्रह्म पूर्णममृतं परमं प्रशान्तं शुद्धं परात्परतरं शरणं गता: स्म: ।। अंशांशकांशकलाद्यवतार वृन्दैरावेशपूर्णसहितैच्श्र परस्य यस्य। सर्गादय: किल भवन्ति तमेव कृष्णर पूर्णात्परं तु परिपूर्णतमं नता: स्म: ।। मन्वन्तरेषु च युगेषु गतागेतेषु कल्पे षु चांशकलया स्वुवपुर्बिभर्षि। अद्यैव धाम परिपूर्णतमं तनोषि धर्म विधाय भुवि मंगलमातनोषि ।। यद्दुर्लभं विशदयोगिभिरप्यगम्यं गम्यं द्रवद्भिरमलाशयभक्तियोगै:। आनन्दकंद चरतस्त्व मन्दययानपादारविन्दवमकरन्द्रजो दधाम: ।। पूर्वं तथात्र कमनीयवपुष्मोयं त्वांन कंदर्पकोटिशतमोहनमद्भुतं च। गोलोकधामधिषणुद्युतिमादधानं राधापतिं धरमधुर्यधनं दधानम् ।। (गर्ग0, गोलोक0 11। 8-13)
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