प्रभा तिवारी (वार्ता | योगदान) ('<div class="bgsurdiv"> <h4 style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">'''श्रीमद्भागवत प्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
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− | यद्यपि आपसे मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं, परा भक्ति की प्राप्ति कर सकते हैं तथापि उसकी जगह महामूढ़ अज्ञानी लोग आपकी माया से मोहित होने के कारण इन्द्रियों के सुख को ही माँगते हैं, जो कि नरक में भी प्राप्त हो सकता है। यहाँ लिखा है नरक में भी स्पर्श का सुख प्राप्त हो सकता है। माने, स्पर्श सुख नरक है, यह अर्थ हुआ उसका। हमारी भाषा और शास्त्र की भाषा में अन्तर होता है। नरक में भी स्पर्श सुख प्राप्त होता है, यानी स्पर्श सुख नरक ही है। भगवन्! लोग समझते नहीं, वे स्वर्ग आदि प्राप्त करना चाहते हैं, आपकी भक्ति नहीं चाहते। | + | यद्यपि आपसे [[मोक्ष]] प्राप्त कर सकते हैं, परा भक्ति की प्राप्ति कर सकते हैं तथापि उसकी जगह महामूढ़ अज्ञानी लोग आपकी माया से मोहित होने के कारण इन्द्रियों के सुख को ही माँगते हैं, जो कि नरक में भी प्राप्त हो सकता है। यहाँ लिखा है [[नरक]] में भी स्पर्श का सुख प्राप्त हो सकता है। माने, स्पर्श सुख नरक है, यह अर्थ हुआ उसका। हमारी भाषा और शास्त्र की भाषा में अन्तर होता है। नरक में भी स्पर्श सुख प्राप्त होता है, यानी स्पर्श सुख नरक ही है। भगवन्! लोग समझते नहीं, वे [[स्वर्ग]] आदि प्राप्त करना चाहते हैं, आपकी भक्ति नहीं चाहते। |
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+ | अब मुझे स्वर्ग प्राप्त कराने वाली भक्ति नहीं चाहिए क्योंकि मैंने देखा है, बाद में वे लोग स्वर्ग से टपा-टप टपकते हैं। थोड़ा पुण्य प्राप्त होता है तो लोग स्वर्ग में जाते हैं, और फिर ‘क्षीणे पुण्ये मर्त्य लोकं पतन्ति’ ‘विशन्ति’ नहीं। ‘पतन्ति’ भी क्या कहें। सच में तो [[देवता]] लोग धक्का मार कर उन्हें वहाँ से गिरा देते हैं। साधु-सन्त तो कहते हैं स्वर्ग लोक में जाना वेश्या के घर जाने के समान है। स्वर्ग क्या कोई बड़ी चीज है? स्वर्गवासियों को तो - ‘पततां विमानात्’ विमानों से गिरते हुए मैंने देखा है, ऐसा [[ध्रुव|ध्रुव जी]] कहते हैं। | ||
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11:41, 19 मार्च 2018 के समय का अवतरण
विषय सूची
श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
7.ध्रुव को नारद जी का उपदेश
परम पुरुष भगवान को नमस्कार! कौन हैं ये भगवान? तो कहा ‘योऽन्तः प्रविश्य’, जो मेरे अन्तः करण में प्रवेश करके अपनी चैतन्य शक्ति के द्वारा मेरी सोयी हुई वाणी को जगा देते हैं ये वही हैं। फिर कहा, केवल वाणी को ही नहीं - ‘त्वगादीन्’ सारी ज्ञानेन्द्रियों को, सारी कर्मेन्द्रियों को, और मेरे प्राणों को भी जगा देते हैं। यही बात केनोपनिषद् में भी कही गई है। ‘श्रोत्रस्य श्रोत्रं’ - भगवान तो कानों के कान हैं, आँखों की आँखें हैं, मन के भी मन हैं और प्राणों के भी प्राण हैं। उन्हीं के कारण कान सुनने में समर्थ होते हैं, आँखें देखने में समर्थ होती हैं। यहाँ कहा - ऐसे समर्थ भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ। एक अखण्ड होते हुए भी अनेक रूपों में आप ही प्रकट हो रहे हैं।
यद्यपि आपसे मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं, परा भक्ति की प्राप्ति कर सकते हैं तथापि उसकी जगह महामूढ़ अज्ञानी लोग आपकी माया से मोहित होने के कारण इन्द्रियों के सुख को ही माँगते हैं, जो कि नरक में भी प्राप्त हो सकता है। यहाँ लिखा है नरक में भी स्पर्श का सुख प्राप्त हो सकता है। माने, स्पर्श सुख नरक है, यह अर्थ हुआ उसका। हमारी भाषा और शास्त्र की भाषा में अन्तर होता है। नरक में भी स्पर्श सुख प्राप्त होता है, यानी स्पर्श सुख नरक ही है। भगवन्! लोग समझते नहीं, वे स्वर्ग आदि प्राप्त करना चाहते हैं, आपकी भक्ति नहीं चाहते। अब मुझे स्वर्ग प्राप्त कराने वाली भक्ति नहीं चाहिए क्योंकि मैंने देखा है, बाद में वे लोग स्वर्ग से टपा-टप टपकते हैं। थोड़ा पुण्य प्राप्त होता है तो लोग स्वर्ग में जाते हैं, और फिर ‘क्षीणे पुण्ये मर्त्य लोकं पतन्ति’ ‘विशन्ति’ नहीं। ‘पतन्ति’ भी क्या कहें। सच में तो देवता लोग धक्का मार कर उन्हें वहाँ से गिरा देते हैं। साधु-सन्त तो कहते हैं स्वर्ग लोक में जाना वेश्या के घर जाने के समान है। स्वर्ग क्या कोई बड़ी चीज है? स्वर्गवासियों को तो - ‘पततां विमानात्’ विमानों से गिरते हुए मैंने देखा है, ऐसा ध्रुव जी कहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 4.9.9
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