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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
80.श्रीकृष्ण के सखा सुदामा जी की कथा
अब ब्राह्मणी ने जब ऐसा कहा, तो सुदामा जी सोचने लगे कि भगवान के पास जाने से कुछ बिगड़ता तो है नहीं। भले ही कुछ माँगने के लिए न सही, पर इसी बहाने श्रीकृष्ण से मिलना तो होगा। बहुत दिन हो गये हैं उनसे मिले हुए। देखो, गुरुकुल में दोनों साथ पढ़ते थे, लेकिन उसके बाद वे कभी मिले ही नहीं। श्रीकृष्ण तो भगवान है, देखो, गुरुकुल में दोनों साथ पढ़ते थे, लेकिन उसके बाद वे कभी मिले ही नहीं। श्रीकृष्ण तो भगवान हैं, राजकाज में वे कभी इधर तो कभी उधर आते-जाते रहते थे। उन्हें जगह-जगह आना-जाना तो पड़ता ही था, साथ ही और भी जाने क्या-क्या करते रहना पड़ता था। जबकि सुदामा जी तो सामान्य जीवन व्यतीत कर रहे थे। अतः अनेक वर्ष बीत गए परन्तु दोनों के मिलने का अवसर ही नहीं आया था। अब सुदामा जी का शरीर तो ऐसा जर्जर हो गया था, जैसे उनमें कोई ताकत ही न हो। ज्यादा आयु के नहीं होते हुए भी वे मानो बूढ़े-से लगने लगे थे। जब सोच लिया कि भगवान से मिलने जाना है, तब उन्होंने अपनी पत्नी से कहा, “वहाँ मैं ख़ाली हाथ कैसे जाऊँ? घर में कुछ हो तो लाकर दो!” वैसे भगवान को अभी यह मालूम नहीं था कि सुदामा जी का विवाह हो गया है। लेकिन सुदामा जानते हैं कि वे पूछेंगे कि गुरुकुल वास के बाद क्या-क्या किया? जब उन्हें पता चलेगा कि विवाह भी हुआ है, तो वे अवश्य ही पूछेंगे कि भाभी ने मेरे लिए क्या भेजा है? अतः सुदामा जी कहते हैं, “घर में कुछ हो तो दे दो।” घर में तो कुछ था नहीं। अतः वह ब्राह्मणी जाकर चार मुट्ठी चिउड़ा माँग कर ले आती है। चार घरों से आया हुआ वह चिउड़ा चार प्रकार का था। कोई सफेद था तो कोई लाल, कोई पतला था तो कोई कड़ा। अब घर में ऐसी दरिद्रता थी कि उन्हें बाँध कर देने के लिए कोई अच्छा कपड़ा भी नहीं था। किसी प्रकार उसने एक चिथड़े में उन चिउड़ों को बाँध दिया। सुदामा जी उस पोटली को लेकर चल पड़े। जाते समय सुदामा जी मनोरथ करते जा रहे थे कि मैं इतने दिनों बाद भगवान से मिलूँगा। वे मुझसे किस प्रकार मिलेंगे? कभी उन्हें लगता है पता नहीं वे मुझे पहचानेंगे भी या नहीं। तब क्या होगा? वे तो राजा हैं और मैं ऐसी दशा में हूँ! पता नहीं कैसे मिलना होगा। वहाँ क्या होगा? इस प्रकार सोचते हुए वे जा रहे थे, शरीर में शक्ति तो थी नहीं, अतः वे थक कर एक जगह बैठ गए तो बैठे-बैठे उन्हें नींद आ गई। भगवान को उन पर दया आयी तो उन्होंने कुछ ऐसी माया की कि सुदामा जी को उसी समय नींद में ही उठा कर द्वारका की सीमा पर पहुँचा दिया। भगवान ने उन्हें चल कर वहाँ पहुँचने की तकलीफ भी उठाने नहीं दी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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