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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
80.श्रीकृष्ण के सखा सुदामा जी की कथा
अति दरिद्रता के कारण सुदामा जी का शरीर क्षीण हो गया था। उनकी पत्नी की भी वही दशा थी। एक दिन उसने कहा कि पतिदेव, आप अपने मित्र श्रीकृष्ण की बहुत प्रशंसा करते रहते हैं, यह भी कहते रहते हैं कि वे बड़े धनवान् हैं, श्रीपति हैं। आप प्रायः उनका स्मरण करते रहते हैं। एक बार अपने उस मित्र से मिलने क्यों नहीं चले जाते? देखो, वह ब्राह्मणी सोचती है कि सुदामा जी वहाँ जायेंगे तो श्रीकृष्ण अपने बचपन के मित्र की दशा देखकर समझ जायेंगे कि वह बड़ी गरीबी में है और फिर भगवान अपने आप उन्हें कुछ दे देंगे। ऐसा सोचकर, वह कहती है कि भले ही आप उनसे कुछ माँगना नहीं, पर एक बार उनसे मिलने तो जा ही सकते हैं। देखिये, सुदामा जी में बहुत सारे सद्गुण थे लेकिन एक अवगुण भी था। ऐसा कहने पर लगता है भला सुदामा जी में कौन सा अवगुण था? उनमें यही अवगुण था कि उनको थोड़ा अभिमान था। किस बात का अभिमान था उन्हें? यही कि मैं किसी से कुछ माँगूँगा नहीं, इसी बात का अभिमान था उन्हें। देखो, कभी-कभी लोगों में ऐसा अभिमान भी देखा जाता है। यह अभिमान कुछ विचित्र प्रकार का होता है। ‘मैं किसी के आगे हाथ नहीं फैलाऊँगा’ जीवन में ऐसा अभिमान चल नहीं पाता। और यदि कोई ऐसा अभिमान कर के बैठ जाए कि मैं भगवान से भी कुछ नहीं माँगूँगा तब तो वह किसी भी तरह नहीं चलता। देखो, बहुत-से लोगों में बहुत सारी बातें अच्छी होती हैं लेकिन कोई-न-कोई कमी रहती ही है। कई लोगों की अध्यात्म मार्ग में बड़ी प्रवृति होती है, लेकिन वे संन्यास लेना बिल्कुल पसंद नहीं करते। इसलिए कि संन्यास लेने पर भिक्षा माँगनी पड़ती है। वे कहते हैं, “मैं भिक्षा नहीं माँग सकता। स्वयं कमा कर अपनी कमाई का खाऊँगा।” देखो, ‘अपनी कमाई का’ यह जो अभिमान है न, यही उन्हें संन्यास लेने से रोकता रहता है। सुदामा जी में भी इसी प्रकार की वृत्ति थी कि मैं किसी से कुछ माँगूँगा नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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