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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
1.अवतार की प्रस्तावना
वैसे तो सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान् भगवान सम रहते हैं, किसी का पक्ष नहीं लेते। लेकिन जब कोई उनको एक विशेष रूप में प्रकट कराता है- जैसे श्रीकृष्ण रूप में, तब वे अपने भक्तों का पक्षपात भी करने लगते हैं। अन्यथा, विष्णु भगवान के रूप में तो वे शेष शय्या पर शयन करते रहते हैं, न किसी से राग करते हैं, न किसी से द्वेष, न किसी में आसक्त होते हैं, न ही कुछ और करते हैं। अतः वहाँ से भगवान को यहाँ लाना पड़ता है। जीव ऐसे हैं कि दुःखी होते रहते हैं, क्योंकि इनमें इच्छाएँ बहुत हैं लेकिन उन्हें पूर्ण करने की शक्ति इनके पास नहीं है। भगवान में दुःख भी नहीं है और इच्छा पूर्ण करने की शक्ति भी है। लेकिन उनमें कोई इच्छा नहीं है। देखो, एक में सामर्थ्य है लेकिन इच्छा नहीं है। दूसरे में इच्छा है तो सामर्थ्य नहीं है। फिर क्या करें? तो अपनी इच्छा भगवान में डाल दो या भगवान की सामर्थ्य प्राप्त कर लो। दोनों में से एक काम करना ही पड़ेगा। अब भगवान की सामर्थ्य तो क्या प्राप्त करेंगे? सबसे अच्छा यही है कि अपनी इच्छा भगवान में डाल दें। भगवान! मुझे दुःख हो रहा है, थोड़ा आप भी दुःखी हो जाइये! हमारे दुःख से जब भगवान दुःखी हो जाते हैं तब हमारे उस दुःख को दूर करने के लिए वे प्रकट हो जाते हैं, क्योंकि उनमें दुःख दूर करने की शक्ति है। यही भगवान का प्राकट्य है। इतनी प्रस्तावना के बाद अब कृष्णावतार में प्रवेश करते हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 10.1.3
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