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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
7.नृसिंह-अवतार
अब ब्रह्माजी भगवान से कहते हैं, ”भगवन्! मैंने हिरण्यकशिपु को जो वर दिया था, वह बड़ा भयंकर सिद्ध हुआ। आपने उसका वध करके सबको प्रसन्न कर दिया। यह बहुत अच्छा हुआ।“ भगवान ब्रह्माजी से कुछ नाराज से थे। उन्होंने ब्रह्माजी से कहा, ”दुष्ट लोगों को ऐसा वर न दिया करें।“
‘दुष्ट लोगों को ऐसा वर देना जहरीले सर्प को दूध पिलाने जैसा है। मेरे बालक को कितना कष्ट हुआ आपको कुछ मालूम है? बस वर दे दिया!“ ब्रह्माजी ने ऐसे कितने ही लोगों को वर दिया होगा जिसमें अन्ततः भगवान को ही आकर समस्या को दूर करना पड़ा। लेकिन और कहीं पर भी भगवान ने उनको डाँटा नहीं। केवल इसी स्थान पर डाँटा है। क्यों? इसलिए कि प्रह्लाद जैसे बालक को बहुत कष्ट सहना पड़ा। अब सब लोग भगवान की स्तुति करते हैं। उसके बाद भगवान वहाँ से अन्तर्धान होते हैं। भगवान ने स्वयं ही प्रह्लाद का राज्याभिषेक कर दिया था, अतः किसी और को करने की जरूरत ही नहीं पड़ी। प्रह्लाद जी असुरों के सबसे बड़े राजा हुए। भगवान ने उनको यह वरदान भी दे दिया कि अब भविष्य में तुम्हारे कुल क लोगों को मैं कभी मारूँगा नहीं। प्रह्लादजी की भक्ति, हिरण्यकशिपु का वध और नृसिंह भगवान के प्राकट्य के साथ सातवें स्कन्ध के दस अध्याय पूरे होते हैं। इस स्कन्ध में अब तक हमने देखा कि भगवान की कृपा सभी लोगों पर होती है, लेकिन सब के जीवन में उसका प्रभाव समान रूप से दिखाई नहीं देता। किसी-किसी के जीवन में दुःख-ही-दुःख क्यों दिखाई देता है? तो कहा इसका कारण है जीवों की कर्म वासनाएँ। ये कर्म वासनाएँ तीन प्रकार की होती हैं, दैवी, मानवीय और आसुरी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 7.10.30
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