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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
4.प्रह्लाद-चरित्र
मैंने नवधा भक्ति सीखी है। भगवान के गुणों का श्रवण, भगवान के गुणों का कीर्तन, भगवान के नाम का स्मरण, उनके चरणों की सेवा, उनके रूप की पूजा, उनका वंदन करना, उनका दास बन जाना, फिर उनका मित्र बनना और अन्ततः उनके चरणों में अपने आप को समर्पित कर देना, ऐसी जो नवधा भक्ति मैंने सीखी है, यही सबसे अच्छी चीज है। अब तो हिरण्यकशिपु ने क्रोध में आकर प्रह्लाद को अपनी गोद से नीचे जमीन पर पटक दिया और उनके गुरु शंड और अमर्क को बुलाकर कहा कि तुम लोगों से मैंने क्या कहा था? ऐसी बुद्धि यह कहाँ से लेकर आया यहाँ पर? अब गुरु घबरा गए और बोले कि यह बुद्धि इसको किसी ने नहीं दी है। ‘न मत्प्रणीतं न परप्रणीतं’[1] यह सब न मैंने इसको सिखाया है, न दूसरे किसी ने ही सिखाया है। ‘सुतो वदत्येष तवेन्द्रशत्रो’ ऐसी बुद्धि यह अपने साथ लेकर आया है। हिरण्यकशिपु कहता है, ”अरे प्रह्लाद, यह उल्टी बुद्धि तुममें कहाँ से आ गयी?“ तब वे हाथ जोड़ कर कहते हैं, ”राजन् उल्टी बुद्धि तो इन लोगों की है। मेरी बुद्धि उल्टी नहीं है। अपने आप को देह मानना, अपने आप को भगवान से श्रेष्ठ मानना और विषयों में सुख मनाना यही उल्टी बुद्धि है। भगवान में अपना मन लगाना तो सद्बुद्धि है। दुनिया में इससे बढ़कर और दूसरी कोई बात नहीं है।“ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 7.5.28
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