विषय सूची
श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
3.हिरण्यकशिपु का तप व वरदान की प्राप्ति
ब्रह्माजी ने हिरण्यकशिपु से कहा - सृष्टि निर्माण का विभाग तो मेरे पास है। परन्तु संहार का विभाग मेरे पास नहीं है। मैं केवल बनाता हूँ। इसलिए तुम्हारा मरण नहीं हो, ऐसा वर मैं तुम्हे नहीं दे सकता, वह मेरे हाथ में नहीं है। मेरा मरण घर के अंदर नहीं हो बाहर भी न हो, आकाश में, ऊपर नहीं हो, जमीन पर भी नहीं हो। रात में नहीं हो, दिन में नहीं हो, किसी मनुष्य से नहीं हो, पशु से भी न हो, अस्त्र से नहीं हो और शस्त्र से भी न हो।“ इतनी सारी शर्तें लगा दीं उसने। ब्रह्माजी ने कहा तथास्तु! उन्हें तथास्तु बोलना ही पड़ा। ऐसा वर प्राप्त कर हिरण्यकशिपु, जो पहले से ही बड़ा भयंकर शक्तिशाली था, अब और अधिक सामर्थ्यवान् हो गया। उसकी ताकत, अभिमान और बल का पार नहीं रहा। वह घर लौट आया। हिरण्यकशिपु जब तप करने के लिए चला गया था तो इस बीच इन्द्र ने देखा कि यह अच्छा अवसर है। अब हम सारे असुरों को मार सकते हैं। हिरण्यकशिपु की पत्नी कयाधू गर्भवती थी। इन्द्र उसे ले जा रहा था यह सोचकर कि इसके पुत्र का जन्म होते ही उसे मार कर इसे छोड़ देंगे। किन्तु नारद जी वहाँ पर पहुँचे। नारद जी ने कहा - इसे मैं अपने आश्रम में ले जाऊँगा क्योकि इसके गर्भ में जो बच्चा है वह बड़ा भागवत है। वे उसको लेकर गए। उसी बच्चे का नाम हुआ प्रह्लाद। हिरण्यकशिपु के चार पुत्र हुए। लेकिन सबसे श्रेष्ठ, सबसे सुन्दर, सबसे गुणवान् प्रह्लाद ही था। उसके कुछ गुणों को हम यहाँ देखेंगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | विवरण | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज