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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
2.हिरण्याक्ष वध के बाद हिरण्यकशिपु का स्वजनों को उपदेश
एक आदमी मेरे पास आकर कहने लगा - स्वामी जी मैं क्या करूँ दस हजार रूपये का नुकसान हो गया। तो मैंने कहा - अरे, नुकसान तो होता रहता है। जब सारी दुनिया मिथ्या है, उसमें दस हजार रुपये कौन-सी चीज होते हैं। चले गए, तो चले गए? उसमें दुःखी होने की क्या बात है? उसे वेदान्त सुनाया, चार दिन के बाद वह पुनः मुझसे मिलने आया तो मैं रो रहा था। वह बोला, स्वामीजी क्या हो गया? ”मेरे दस रुपये गायब हो गए हैं।“ स्वामीजी परसों मेरे दस हजार रुपये गायब हो गए थे तो आपने कहा था दस हजार मिथ्या है, दुःख मिथ्या है, सारी दुनिया मिथ्या है। आपके केवल दस रुपये चले गए हैं तो उसके लिए इतना रोना? मैंने कहा - फर्क इतना है कि दस हजार रुपये तुम्हारे थे, दस रुपये मेरे थे। यहाँ कहने का तात्पर्य है दूसरे की लाभ-हानि तो मिथ्या और अपनी लाभ-हानि सत्य, यह आसुरी लक्षण हैं। अब दैत्यों ने मारना-काटना शुरू कर दिया। और घर में हिरण्यकशिपु स्वजनों को वेदान्त की बात सुना रहा था। वेदान्त की बात सबके मुख से शोभा नहीं देती। कोई भी आदमी, चाहे जो बात करने लगे तो वह उसे शोभा नहीं देती। हिरण्यकशिपु ने देवताओं की शक्ति घटाने के लिए यज्ञादि सब ध्वस्त करने की आज्ञा तो दे ही दी थी, तथापि उसे लगा कि मेरी अपनी शक्ति भी बढ़नी चाहिए, ऐसा सोचकर वह तप करने चला गया। देखो, असुरों में एकाग्रता तो थी लेकिन उनका चित्त शुद्ध नहीं था। हमारे मन में दो चीजें होनी चाहिए। एक तो चित्त शुद्ध होना चाहिए और उसमें एकाग्रता भी होनी चाहिए। किसी चीज में मन को लगा दें, तो कोई उसको हिला न सके, विचलित न कर सके। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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