गर्ग संहिता
अश्वमेध खण्ड : अध्याय 11
श्रीगर्गजी कहते हैं- श्रीहरि का यह आदेश सुनकर धनुर्धरों में श्रेष्ठ प्रद्युम्न ‘बहुत-अच्छा’ कहकर घोड़ा लाने के लिये घुड़साल में गये। नरेश्वर ! तदनन्तर श्रीकृष्ण ने उस अश्व की रक्षा केलिये अपने पुत्र भानु और साम्ब आदि को अश्वशाला में भेजा। अश्वशाला में जाकर बलवान रूक्मिणीनन्दन प्रद्युम्न ने सोने की सांकल में बँधे हुए सहस्त्रों श्यामकर्ण अश्व को देखकर उनमें से एक यज्ञ के योग्य अश्व को अपने हाथ से हंसते हुए अनायास ही बन्धन मुक्त कर दिया। बन्धन मुक्त छूटने पर वह अश्व धीरे-धीरे अश्वशाला से बाहर निकला। उसका मुख लाल, पूँछ पीली और कान श्यामकर्ण के थे। मुक्ताफलों की मालाओं से सुशोभित वह दिव्य अश्व अत्यन्त मनोहर दिखायी देता था। वह श्वेत छत्र से युक्त और चामरों से अलंकृत था। उसके आगे, पीछे, और बीच में उपस्थित श्रीहरि के पुत्र उस अश्वराज की उसी प्रकार सेवा करते थे जैसे समस्त देवता श्रीहरि की। अन्यान्य मण्डलेश्वरों से भी सुरक्षित हुआ वह अश्व भूतल को अपनी टापों से खोदता हुआ सभामण्डप के पास आया। राजन ! श्यामकर्ण अश्व को वहाँ देख राजा उग्रसेन ने प्रसन्न होकर मुझे आवश्यक विधि का सम्पादन करने के लिये भेजा। तब मैंने रानी रुचिमति सहित महाराज उग्रसेन को योग्य आसन पर बिठाकर पिण्डारक तीर्थ में धर्म के अनुसार समस्त प्रयोग करवाया। राजा उग्रसेन चैत्र मास की पूर्णिमा को मृगचर्म धारण किये यज्ञ के लिये दीक्षित हुए। राजन ! उन्होंने मेरी आज्ञा से ‘असिपत्र-व्रज’ का नियम लिया। नरेश्वर ! मैं यादवेन्द्रकुल का पूर्वगुरु होने के कारण उस यज्ञ में समस्त ब्राह्मणों का आचार्य बनाया गया। तदनन्तर भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा से समस्त ब्राह्मण वेदमन्त्रों का उच्चारण करते हुए अपने-अपने आसन पर बैठे। उन सबने गणेश आदि देवताओं का पृथक-पृथक पूजन किया। राजन ! फिर सब मुनियों ने अश्व की स्थापना करके उस पर केसर, चन्दन, फूलमाला और चावल चढ़ाये, धूप निवेदित किये। सुधा[1]कुण्डलिका आदि का नैवेद्य लगाया और आरती आदि के द्वारा उस अश्व की विधिपूर्वक पूजा करके राजा को दान के लिये प्रेरित किया। उनका यह आदेश सुनकर उग्रसेन ने शीघ्रतापूर्वक वहले मुझे धन का दान किया। एक लाख घोड़े, एक हजार हाथी, दो हजार रथ, एक लाख दुधारू गाय और सौ भार सुवर्ण-इतनी दक्षिणा राजा ने मुझको दी। राजन ! तदनन्तर निमन्त्रित ब्राह्मणों को महाराज उग्रसेन ने जो शास्त्रोक्त दक्षिणा दी, उसका वर्णन सुनो। प्रत्येक को एक हजार घोड़े, दो सौ हाथी, दो सौ रथ और बीस भार सुवर्ण इतनी दक्षिणा दी गयी। तत्पश्चात जो अनिमन्त्रित ब्राह्मण आये थे, उनको नमस्कार करके राजा ने विधिपूर्वक एक हाथी, एक रथ, एक गौ, एक भार सुवर्ण और एक घोड़ा-इतनी दक्षिणा प्रत्येक ब्राह्मण के लिये दी। इस प्रकार दान करके घोड़े के ललाट पर, जो कुंकुम आदि के कारण अत्यंत कमनीय दिखायी देता था, राजा ने सोने का पत्र बांधा। उस पत्र पर मैंने सभामण्डप में समस्त यादवों के समक्ष महाराज उग्रसेन के बढ़े-चढ़े बल पराक्रम तथा प्रताप का इस प्रकार उललेख किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मिष्ठान्न (इमरती या जलेबी आदि) एक मधुर खाद्य पदार्थ का नाम।
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