गर्ग संहिता
अश्वमेध खण्ड : अध्याय 11
‘चन्द्रवंश के अन्तर्गत यदुकुल में राजा उग्रसेन विराजमान हैं, जिनके आदेश का इन्द्र आदि देवता भी अनुसरण करते हैं। भक्तपाल भगवान श्रीकृष्ण जिनके सहायक हैं और उन्हीं की भक्ति से बँधकर वे श्रीहरि सदा द्वारकापुरी में निवास करते हैं। उन्हीं की आज्ञा से चक्रवर्ती राजाधिराज उग्रसेन अपने यश का विस्तार करने के लिये हठात अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान करते हैं। उन्होंने ही यह अश्वों में श्रेष्ठ शुभलक्षण-सम्पन्न श्यामकर्ण घोड़ा छोड़ा है। इस अश्व के रक्षक हैं, श्रीकृष्ण के पौत्र अनिरूद्ध, जिन्होंने ‘वृक’ दैत्य का वध किया था। वे हाथी, घोड़े, रथ और पैदल-वीरों की चतुरंगिणी सेनाओं के साथ हैं। इस भूतलपर जो-जो राजा राज्य करते हैं और अपने को शूरवीर मानते हैं, वे सब स्वर्णपत्रशोभित अश्वमेधीय अश्व को अपने बल से रोकें। धर्मात्मा अनिरूद्ध अपने बाहुबल और पराक्रम से हठपूर्वक अनायास ही राजाओं द्वारा पकड़े गये इस अश्व को छुड़ा लेंगे। जो धनुर्धर नरेश इस अश्व को नहीं पकड़ सके, वे अनिरूद्धजी के चरणों में प्रणाम करके सकुशल लौट जायँ’। जब इस प्रकार स्वर्णपत्र लिख दिया गया, तब श्रेष्ठ यदुवंशी वीरों ने शंख बजाये। झांझ, मृदंग, नगाड़े और गोमुख आदि बाजे बज उठे। गन्धर्वगण श्रीकृष्ण और बलदेव के मंगलमय चरित्रों का गान करने लगे और अप्सरायें भी वहाँ आनन्दविभोर होकर नृत्य करने लगीं। तदनन्तर भगवान श्रीकृष्ण अत्यन्त प्रसन्न होर यादवराज उग्रसेन के सामने ही वहाँ खड़े हुए प्रद्युम्नकुमार अनिरूद्ध को उस यज्ञ सम्बन्धी अश्व के सर्वथा संरक्षण का आदेश दिया। इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता के अंतर्गत अश्वमेध चरित्र सुमेरू में ‘अश्व को पूजन’ विषयक ग्यारहवां अध्याय पूरा हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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