गर्ग संहिता
गोलोक खण्ड : अध्याय 15
श्री नारद जी ने कहा- आठ वसुओं में प्रधान जो ‘द्रोण’ नामक वसु हैं, उनकी स्त्री का नाम ‘धरा’ है। इन्हें संतान नहीं थी। वे भगवान श्री विष्णु के परम भक्त थे। देवताओं के राज्य का भी पालन करते थे। राजन ! एक समय पुत्र की अभिलाषा होने पर ब्रह्माजी के आदेश से वे अपनी सहधर्मिणी धरा के साथ तप करने के लिये मन्दराचल पर्वत पर गये। वहाँ दोनों दम्पति कन्द, मूल एवं फल खाकर अथवा सूखे पत्ते चबाकर तपस्या करते थे। बाद में जल के आधार पर उनका जीवन चलने लगा। तदनंतर उन्होंने जल पीना भी बन्द कर दिया। इस प्रकार जनशून्य देश में उनकी तपस्या चलने लगी। उन्हें तप करते जब दस करोड़ वर्ष बीत गये, तब ब्रह्माजी प्रसन्न होकर आये और बोले- ‘वर माँगो’। उस समय उनके ऊपर दीमकें चढ़ गयी थीं। अत: उन्हें हटाकर द्रोण अपनी पत्नि के साथ बाहर निकले। उन्होंने ब्रह्मा जी को प्रणाम किया और विधिवत उनकी पूजा की। उनका मन आनन्द से उल्लसित हो उठा। वे उन प्रभु से बोले- श्री द्रोण ने कहा- ब्रह्मण ! विधे ! परिपूर्णतम जनार्दन भगवान श्रीकृष्ण मेरे पुत्र हो जायँ और उनमें हम दोनों की प्रेम लक्षणा भक्ति सदा बनी रहे, जिसके प्रभाव से मनुष्य दुर्लभजन्या भवसागर को सहज ही पार कर जाता है। हम दोनों तपस्वीजनों को दूसरा कोई वर अभिलषित नहीं है। श्री ब्रह्माजी बोले- तुम लोगों ने मुझ से जो वर माँगा है, वह कठिनाई से पूर्ण होने वाला और अत्यंत दुर्लभ है। फिर भी दूसरे जन्म में तुम लोगों की अभिलाषा पूरी होगी। श्री नारद जी कहते हैं- राजन ! वे ‘द्रोण’ ही इस पृथ्वी पर ‘नन्द’ हुए और ‘धरा’ ही ‘यशोदा’ नाम से विख्यात हुई। ब्रह्मा जी की वाणी सत्य करने के लिये भगवान श्रीकृष्ण पिता वसुदेव जी की पुरी मथुरा से व्रज में पधारे थे। भगवान श्रीकृष्ण का शुभ चरित्र सुधा-निर्मित खाँड़ से भी अधिक मीठा है। गन्धमादन पर्वत के शिखर पर भगवान नर-नारायण के श्रीमुख से मैंने इसे सुना है। उनकी कृपा से मैं कृतार्थ हो गया। वही कथा मैंने तुमसे कही है; अब और क्या सुनना चाहते हो? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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