गर्ग संहिता
अश्वमेध खण्ड : अध्याय 7
उग्रसेन बोले- देवदेव ! जगन्नाथ ! जगदीश्वर ! जगन्मय ! वासुदेव ! त्रिलोकीनाथ ! मेरी बात सुनिये। हरे ! मेरे बेटे कंस ने बड़े-बड़े असुरों के साथ मिलकर बिना अपराध के सहस्त्रों बालक मार डाले हैं। गोविन्द ! उस पापी की मुक्ति कैसे होगी ? बालघाती कंस किस लोक में गया है, यह मुझे बताइये। जगदीश्वर ! उसके पाप से मैं भी डर गया हूँ। पुत्र के पाप से पिता निश्चय ही नरक में पड़ता है। इसी प्रकार पिता के पिता के पाप से पिता को नरक में गिरना पड़ना है। अत: माधव ! कृपापूर्वक बताइये, मैं कंस उद्धार के लिये किस उपाय का अवलम्बन करुँ ? जगत्पये ! आज नारदजी ने जो बात बतायी है, उसे सुनिये- ‘ब्रह्म-हत्यारा, विश्वघाती तथा गोघातक भी अश्वमेध यज्ञ के अनुष्ठान से शुद्ध हो जाता है।’ उस यज्ञ में मेरा मन लग गया है। यदि आप आज्ञा दें तो मैं उसका अनुष्ठान करूं । श्रीगर्गजी कहते हैं- उग्रसेन की बात सुनकर मदनमोहन भगवान श्रीकृष्ण मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए और पृथ्वी को भार से पीड़ित देख इस प्रकार विचार करने लगे- ‘’अहो ! मैंने अनेक बार पृथ्वी का भार उतारा है, तथापि वह भार भूमण्डल में अब तक है ही। उसका निवारण अश्वमेध यज्ञ से ही होगा। विदूरथ के वध के अवसर पर मैंने यह प्रतिज्ञा की थी कि अब मैं युद्ध के मैदान में शत्रुओं को अपने हाथ से नहीं मारूंगा’। इस कारण स्वयं तो युद्ध के लिए नहीं जाऊँगा; परंतु अपने पुत्रों तथा अन्य यदुवंशियों को अवश्य युद्ध के लिये भेजूँगा। अश्वमेध तो एक बहाना होगा। मैं उसी की आड़ में सम्पूर्ण पृथ्वी को जीतने का प्रयास करूँगा।‘’ राजन ! मन-ही-मन ऐसा सोचकर भगवान श्रीकृष्ण सुधर्मा-सभा में हँसते हुए उग्रसेन से बोले। श्रीकृष्ण ने कहा- महाराज ! कंस मेरे हाथ से मारा गया है, अत: निश्चय ही वैकुण्ठधाम को गया है और वहाँ मेरे-जैसा स्वरूप धारण करके नित्य निवास करता है। राजेन्द्र ! प्रतिदिन मेरा दर्शन करने के कारण तुम भी पापरहित हो, तथापि तुम अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान अवश्य करो। पापनाश या कंस के उद्धार के लिए नहीं, अपने यश के विस्तार के लिए करो। भूपाल ! इस यज्ञ से भूतल पर तुम्हारी विशाल कीर्ति फैलेगी। राजन ! अनायास ही महान कर्म करने वाले भगवान श्रीकृष्ण का यह कथन सुनकर उस समय राजा उग्रसेन बड़े प्रसन्न हुए और यह उत्तम वचन बोले। राजा ने कहा- गोविन्ददेव ! अब मैं यज्ञों में श्रेष्ठ अश्वमेध का अनुष्ठान अवश्य करूंगा और वह आपकी कृपा से शीघ्र पूर्ण हो जायेगा। अब आप अश्वमेध का सारा विधि विधान मुझे विस्तारपूर्वक बताइये। राजा का यह वचन सुनकर विस्तृत यशवाले भगवान श्रीकृष्ण बोले- ‘युदुकुल तिलक महाराज ! अश्वमेध यज्ञ की विधि आप देवर्षि नारदजी से पूछिये। ये सब कुछ जानते हैं, अत: आपके सामने उसका वर्णन करेंगे।’ राजन ! श्रीहरि का वचन सुनकर यदुराज उग्रसेन आनन्दमग्न हो गये। नरेश्वर ! उन्होंने सभा में बैठे हुए देवर्षि से इस प्रकार पूछा- ‘ देवर्षे ! अश्वमेध यज्ञ में घोड़ा कैसा होना चाहिये ? उसमें भाग लेने वाले श्रेष्ठ द्विजों की संख्या कितनी होनी चाहिये, यह सब बताइये’। उग्रसेन की यह बात सुनकर देवताओं के समान दर्शनीय देवर्षि नारद श्रीकृष्ण के ऊपर प्रेमपूर्ण दृष्टि डालकर मुसकराते हुए-से बोले। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |