गर्ग संहिता
गोलोक खण्ड : अध्याय 14
यशोदा जी ने कहा- बहिनों ! समझ में नहीं आता कि उस समय मेरा लाला क्यों गिरिराज के समान भारी लगने लगा था; इसीलिये उस महाभयंकर बवंडर में भी मैंने इसे गोदी से उतार कर भूमि पर रख दिया। गोपियाँ कहने लगीं- यशोदा जी ! रहने दो, झूठ न बोलो। कल्याणी ! तुम्हारे दिल में जरा भी दयामया नहीं है। यह दुधमुँहा बच्चा तो फूल और रूई के समान हलका है। श्री नारद जी कहते हैं- बालक श्रीकृष्ण के घर आ जाने पर नन्द आदि गोप और गोपियाँ- सभी को बड़ा हर्ष हुआ। वे सब लोगों के साथ उसकी कुशल वार्ता कहने लगे। यशोदा जी बालक श्रीकृष्ण को उठा ले गयीं और बार-बार स्तन्य पिलाकर, मस्तक सूँघ कर और आँचल से छाती में छिपा कर छोह-मोह के वशीभूत हो, रोहिणी से कहने लगीं। श्री यशोदा जी बोलीं- बहिन ! मुझे दैवने यह एक ही पुत्र दिया है, मेरे बहुत से पुत्र नहीं है; इस एक पुत्र पर भी क्षण भर में अनेक प्रकार के अरिष्ट आते रहते हैं। आज यह मौत के मुँह से बचा है। इससे अधिक उत्पात और क्या होगा ? अत: अब मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ तथा अब और कहाँ रहने की व्यवस्था करूँ ? धन, शरीर, मकान, अटारी और विविध प्रकार के रत्न- इन सबसे बढ़कर मेरे लिये यह एक ही बात है कि मेरा यह बालक कुशल से रहे। यदि मेरा यह बच्चा अरिष्टों पर विजयी हो जाय तो मैं भगवान श्री हरि की पूजा, दान एवं यज्ञ करूँगी; तड़ागवापी आदि का निर्माण करूँगी और सैकड़ों मन्दिर बनवा दूँगी। प्रिय रोहिणी ! जैसे अन्धे के लिये लाठी ही सहारा है, उसी प्रकार मेरा सारा सुख इस बालक से ही है। अत: बहिन ! अब मैं अपने लाला को उस स्थान पर ले जाऊँगी, जहाँ कोई भय न हो। श्री नारद जी कहते हैं- राजन ! उसी समय नन्द मन्दिर में बहुत से विद्वान ब्राह्मण पधारे और उत्तम आसन पर बैठे। नन्द और यशोदा जी ने उन सबका विधिवत पूजन किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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