गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 38
शकुनि बोला- तुम सब लोगों में मेरे मुख्य शत्रु तथा मदमत्त योद्धा हो, अत: पहले तुम्हारा ही वध करूँगा। तत्पश्चात् स्वस्थ तेजवाले यादवों की सारी सेना का संहार कर डालूँगा। प्रद्युम्न ने कहा- असुर ! प्राणियों की आयु सदाकाल के बल से नष्ट होती या बीतती है। वह बारंबार छाया की तरह आती जाती है। जैसे बादलों की पंक्ति आकाश में वायु की शक्ति से आती जाती है, उसी तरह सुख दु:ख भी काल की प्रेरणा से आता जाता रहता है। जैसे किसान बोयी हुई खेती को सींचता है और जब वह पक जाती है, तब स्वयं उसे हँसुए से सब ओर से काट लेता है, उसकी प्रकार दुर्जयकाल अपनी ही रची हुई देहधारियों की श्रेणी को अपने गुणों द्वारा पालता है और फिर समय आने पर उसका संहार कर डालता है। जीव तो अहंकार से मोहित होकर ही ऐसा मानता है कि मैं यह करूँगा, मैं यह करता हूँ; यह मेरा और वह तेरा है; मैं सुखी हूँ, दु:खी हूँ और ये मेरे सुहृद् हैं इत्यादि। शकुनि बोला- नृपश्रेष्ठ ! तुम धन्य हो, जो अपनी वाणी द्वारा ऋषि मुनियों का अनुकरण करते हो। तीन गुणों के अनुसार पृथक-पृथक जो प्राणियों का स्वभाव है, उसका उनके लिये त्याग करना कठिन होता है। नारदजी कहते हैं- मैथिलेन्द्र ! युद्ध स्थल में इस प्रकार परस्पर संत्सग की बातें करते हुए प्रद्युम्न और शकुनि इन्द्र और वृत्रासुर की भाँति युद्ध करने लगे। शकुनि इन्द्र और वृत्रासुर की भाँति युद्ध करने लगे। शकुनि के धनुष से छुटे हुए विशिख सूर्य की किरणों के समान चमक उठे, परंतु श्रीकृष्णकुमार ने एक ही बाण से उन सबको काट दिया- ठीक उसी तरह, जैसे एक ही कटुवचन से मनुष्य पुरानी मित्रता को भी खण्डित कर देता है। तब रणदुर्मद शकुनि ने लाख भार की बनी भारी और विशाल गदा हाथ में लेकर प्रद्युम्न के मस्तक पर दे मारी। साक्षात भगवान प्रद्युम्न ने अपने वज्र सरीखी गदा से उसकी गदा के सौ टुकड़े कर दिये उसी प्रकार जैसे कोई डंडा मारकर काँच के बर्तन टूक टूक कर दे। तब रोष के आवेश से युक्त हुए उस दैत्य ने एक चमचमाता हुआ त्रिशुल हाथ में लिया और उच्च स्वर से गर्जना करते हुए उसके द्वारा प्रद्युम्न के मस्तक पर प्रहार किया। श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्न ने भी त्रिशुल मारकर दैत्य के त्रिशूल के सौ टुकड़े कर डाले। इसके बाद रुक्मिणीनन्द ने एक तीखी बरछी लेकर शकुनि के ऊपर चलायी। बरछी से उसकी छाती छिद गयी। इससे उसके मन में कुछ घबराहट हुई, तथापि उसने समरांगण में प्रद्युम्न को परिघ से पीट दिया। तब बलवान रुक्मिणी कुमार ने यमदण्ड लेकर दैत्य के उस अद्भुत परिघ को उसे द्वारा चूर चूर कर डाला। इतना ही नहीं, वेगपूर्वक चलाये हुए उस यमदण्ड से सहसा उसके घोड़ों को, सारथि को उस दिव्यरथ को भी धराशायी कर दिया। नरेश्वर ! सारथि के मर जाने पर और घोड़े सहित रथ एवं परिघ के भी चूर चूर हो जाने पर उस महादैत्य ने रोष पूर्वक खड्ग हाथ में लिया। मैथिल ! जैसे गरुड़ किसी सर्प के दो टुकड़े कर दे, उसी प्रकार महावीर प्रद्युम्न ने यमदण्ड के द्वारा उसके खड्ग हाथ में लिया। मैथिल ! जैसे गरुड़ किसी सर्प के दो टुकड़े कर दे, उसी प्रकार महावीर प्रद्युम्न ने यमदण्ड के द्वारा उसके खड्ग के दो टुकड़े कर डाले। इसके बाद श्रीकृष्णकुमार ने उसी यमदण्ड से दैत्य के कंधे पर प्रहार किया। उसके आघात से शकुनि को तत्काल मूर्च्छा आ गयी। तदनन्तर क्रोध से भरे हुए प्रद्युम्न ने उस यमदण्ड के द्वारा यमराज की भाँति हाथियों, घोड़ों, रथों और उन आततायी दैत्यों को मार गिराया। दैत्यों के पैर, मुख, अंग और भुजाएँ छिन्न भिन्न हो गयीं। वे समस्त दैत्य और दानव काल के गाल में चले गये। भीम पराक्रमी प्रद्युम्न को यमराज का रूप धारण किये देख कितने ही दैत्य युद्ध भूमि में भाग गये। इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में विश्वजित खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में ‘शकुनि और प्रद्युम्न के युद्ध का वर्णन’ नामक अड़तीसवां अध्याय पूरा हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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