गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 14
वह अपने चरणों की धूलि से सम्पूर्ण जगत को पवित्र करता है। जो निरन्तर परमेश्वर श्रीहरि के चरणों की धूलि का आश्रय ले, सम्पूर्ण ब्रह्मपद, इन्द्रपद, चक्रवर्ती सम्राट के पद रसातल के आधिपत्य, योगसिद्धि और मोक्ष की कभी भी इच्छा नहीं करता, वही भगवान का श्रेष्ठ भक्त है। जो अकिंचन है, जिसको अपने किये हुए कर्मों के फल से विरक्ति है तथा जो श्रीहरि की चरणरज में ही आसक्त हैं, वे महामुनि भगवदीय भक्तजन ही भगवान के उस परमपद का सेवन करते हैं। अन्य लोग उस नैरपेक्ष्य सुख का अनुभव नहीं कर पाते। भगवान पुरुषोत्तम को अपने भक्त से बढ़कर प्रिय कोई नहीं जान पड़ता। न शिव, न ब्रह्मा, न लक्ष्मी और न रोहिणीनन्दन बलरामजी ही उन्हें भक्त से अधिक प्रिय हैं। भक्तों ने उनके मन को बांध रखा है, अत: सकल लोकजनों के चूड़ामणि भगवान श्रीकृष्ण सदा भक्तों के पीछे-पीछे चलते है। अपने भक्तजनों के पीछे चलते हुए भगवान परमात्मा श्रीकृष्ण उनके प्रति अपनी रुचि- अपना अनुराग सूचित करते हैं और समस्त लोको को पवित्र करते हैं। इसीलिये भगवान मुकुन्द अतिशय भजन करने वाले लोगों को मोक्ष तो दे देते हैं, परंतु उत्तम भक्तियोग कदापि नहीं देते [1]। श्री नारद जी कहते हैं- राजन! यह उपदेश सुनकर यादवेन्द्र प्रद्युम्न ने श्रीभार्गव कुलभूषण परशुरामजी को नमस्कार किया और वहाँ से पूर्व दिशा में विद्यमान गंगासागर-संगम की ओर प्रस्थान किया । इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में विश्वजित खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में ‘द्रविड़ देश पर विजय’ नामक चौदहवां अध्याय पूरा हुआ । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ निष्किंचनो हरिपदाब्जपरागलुब्ध: श्रीमत्कथाश्रवणकीर्तनतत्परो य:। तदरूपसिन्धुलहरीविनिमग्न चित्त: श्रीकृष्णचन्द्रदयित: कथित: स भक्त: ।।
दान्तो महानखिलजंगमवत्सलोऽयं शान्तस्तितिक्षुरतिकारूणिक: सुहृत्सत्। लोकं पुनाति निजपादरजोभिरारात् श्रीकृष्णचन्द्रदयित: कथित: परेश: ।।
य: पारमेष्ठ्यमखिलं न महेन्द्रधिष्ण्यं नो सार्वभौममनिशं न रसाधिपत्यम्। नो योगसिद्धिमपि नो नपुनर्भवं वा वाञ्छत्यलं परमपादरज: स भक्त: ।।
निष्किंचना: स्वकृतकर्मफलैर्विरागा यत्तत्पदं हरिजना मुनयो महान्त:। भक्ता जुषन्ति हरिपादरज: प्रसक्ता अन्ये विदन्ति न सुखं किल नैरपेक्ष्यम् ।।
भक्तात्प्रियो न विदित: पुरुषोत्तमस्य शम्भुर्विधिर्न च रमा न च रौहिणेय:। भक्ताननुव्रजति भक्तनिवद्धचित्तश्चुडामणि: सकललोकजनस्य कृष्ण।।
गच्छन्निजं जनमनु प्रपुनाति लोकानावेदयन् हरिजने स्वरुचिं महात्मा। तस्मादतीव भजतां भगवान मुकुन्दो मुक्तिं ददाति न कदापि सुभक्तियोगम् ।।गर्ग0 विश्वजित0 14। 34-39
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