गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 13
प्रद्युम्न बोले- भोजकुलतिलक मन्त्रिवर उद्धवजी ! परम तेजस्वी लोकापति विभीषण इस द्वीप का राजा तथा राक्षस-समूहों का सरदार है। यदि वह शीघ्र भेंट न दे तो बताइये, यहाँ हमें क्या करना चाहिये ? उद्धवजी ने कहा- प्रभो ! आप देवाधिदेव पुरुषोत्तमोत्तम हैं। आप ही परमात्मा श्रीकृष्णचन्द्र हैं, तथापि आप साधारण लोगों की भाँति मुझ से पूछते हैं। बड़े-बड़े़ योगीश्वर भी आपकी माया का पार नहीं पाते। भूमन ! ब्रह्मा आदि देवता भी सदा पराजित होकर जिनके उत्तम अनुशासन का भार सदा अपने मस्तक पर ढ़ोते हैं, वही साक्षात पुरुषोत्तम आप हैं। मैं तो आपका दासानुदास हूँ, फिर मैं आपको क्या सलाह दूँगा ? । श्रीनारदजी कहते है- मैथिलेश्वर ! उद्धव के यों कहने पर श्रीहरिस्वरूप भगवान प्रद्युम्न ने एक ताड़पत्र लेकर उस पर अपना संदेश लिखा- ‘राक्षसराज ! तुम भोजराज उग्रसेन के लिये भेंट दो; यदि बलाभिमानवश तुम मेरी बात नहीं सुनोगे तो मैं धनुष से छोड़े गये बाणों द्वारा समुद्र पर सेतु बांधकर सैन्य समूह के साथ लंका पर चढ़ाई करुँगा। यह लिखकर प्रचण्ड-पराक्रमी प्रद्युम्न ने कोदण्ड हाथ में लिया और अपने पत्र को बाण में लगाकर उस बाण को कान तक खींचा और छोड़ दिया। उस धनुष की प्रत्यंचा को खींचने से बिजली की गड़गड़ाहट के समान टंकारध्वनि प्रकट हुई। उस नाद से पातालों तथा सातों लोको सहित सारा ब्रह्माण्ड गूँज उठा। प्रद्युम्न के धनुष से छूटा हुआ बाण सम्पूर्ण दिशाओं को प्रकाशित करता हुआ विद्युत के समान गिरते ही सब राक्षस चकित से होकर उठकर खडे़ हो गये। उन दुष्टों ने बड़े वेग से अपने कवच और शस्त्र ग्रहण कर लिये। महाबली राक्षसराज विभीषण बाण से पत्र को खींचकर पढ़ गये। सभी में वह पत्र पढ़कर उन्हें बढा़ विस्मय हुआ। उसी समय उस राजसभा में शुक्राचार्य आ पहुँचे। विभीषण ने पाद्य आदि उपचारों द्वारा उनका पूजन किया और हाथ जोड़ प्रणाम करके कहा । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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