गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 3
चामर से अलंकृत हुए उन घोड़ों की पूँछ, मुख और पैरों से प्रभा-सी छिटक रही थी। यादवों की उस विशाल सेना में ऐेसे-ऐसे घोडे़ दृष्टिगोचर होते थे, जो वायु और मन के समान वेगशाली थे। वे अपने पैरों से धरती का तो स्पर्श ही नहीं करते थे- उड़ते-से चलते थे। मिथिलेश्वर ! उनकी गति ऐसी हलकी थी कि वे कच्चे सूतों पर और बुदबुदों पर भी चल सकते थे। पारे पर, मकड़ी के जालों पर और परनी के फुहारों पर भी वे निराधार चलते दिखायी देते थे। वे चंचल अश्व पर्वतों की घाटियों, नदियों, दुर्गम स्थानों, गड्ढों और ऊंचे-ऊँचे प्रासादों को भी निरन्तर लांघते जा रहे थे। मैथिलेन्द्र ! वे इधर-उधर मोर, तीतर, क्रौञ्च, हंस और खंजरीट की गति का अनुकरण करते हुए पृथ्वी पर नाचते चलते थे। कई अश्व पांखवाले थे। उनके शरीर दिव्य थे, कान श्यामवर्ण के थे, आकृति मनोहर थी। पूँछ के बाल पीले रंग के थे और शरीर की कान्ति चन्द्रमा के समान श्वेत थी। वे भी श्रीकृष्ण की अश्वशाला से निकले थे। कुछ घोडे़ उच्चै:श्रवा के कुल में उत्पन्न हुए थे, कुछ सूर्यदेव के घोड़ों से पैदा हुए थे। कितने के रंग अश्विनी पुष्पक के समान पीले थे। बहुत-से अश्व सुनहरी तथा हरी कान्ति से उद्भासित थे। कितने ही अश्व पद्मराग-मणि की–सी कान्ति वाले थे। वे सभी समस्त शुभ लक्षणों युक्त दिखायी देते थे। राजन् ! इनके सिवा और भी कोटि-कोटि अश्व कुशस्थली पुरी से बाहर निकले। सेना के धनुर्धर वीर ऐसे थे जिन्हें कई युद्धों में अपने शौर्य के लिये कीर्ति प्राप्त हो चुकी थी। उन सबने शक्ति, त्रिशूल, तलवान, गदा, कवच और पाश धारण कर रखे थे। नरेश्वर ! वे शस्त्र-धाराओं की वर्षा करते हुए प्रलयकाल के महासागर के समन प्रतीत होत थे। रणभूमि में दिग्गजों की भाँति शत्रुओं को रौंदते और कुचलते दिखायी देते थे। राजन्! इस प्रकार यादवों की वह विशाल सेना निकली, जो अत्यन्त अद्भुत थे। उसे देखकर देवता और असुर-सभी विस्मित हो उठे। इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में विश्वजित खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में ‘यादवसेवा का प्रयाण’ नामक तीसरा अध्याय पूरा हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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