गर्ग संहिता
द्वारका खण्ड : अध्याय 19
राजन् ! भगवान के मन्दिर से पश्चिम दिशा में दो सौ धनुष की दूरी परम मंगलमय ’दानतीर्थ’ है। वहाँ श्रीकृष्णचन्द्र की प्रसन्नता के लिये जो प्रतिदिन दान करता है, वह उत्तम पुण्य का भागी होता है। विदेहराज ! उस तीर्थ में स्नान करके जो मनुष्य दो पल सोना, आठ पल चांदी और सौ रेशमी पट्टमबर दान देता है तथा सहस्त्रों मोहर और नवरत्नों का दान करता है, उस श्रेष्ठ मानव को मिलने वाले पुण्यफल का वर्णन सुनो। सहस्त्र अश्वमेध तथा सौ राजसूय यज्ञ भी दानतीर्थ के पुण्य की सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं सकते। बदरिकाश्रम तीर्थ की यात्रा से मनुष्य जिस फल को पाता है, सूर्य के मेषराशि पर रहते समय सैन्धवारण्य की यात्रा करने पर जिस फल की प्राप्ति होती है सूर्य के वृषराशि में रहते समय उत्पलावर्ततीर्थ की यात्रा करने पर जिस फल की प्राप्ति प्राप्ति है, सूर्य के वृषराशि में रहते समय उत्पलावर्त तीर्थ की यात्रा में स्नान–दान का उन दोनों तीर्थों की अपेक्षा लाख गुना फल मिलता है- इसमें संशय नहीं है। परंतु विदेहराज ! दानतीर्थ में उससे भी कोटिगुना फल प्राप्त होता है। जो दानतीर्थ में एक मास तक स्नान करता है, उसको जिस अनन्त पुण्य की प्राप्ति होती है, उसका ज्ञान चित्रगुप्त को भी नहीं है। उस तीर्थ का माहात्म्य बतलाने में चतुर्मुख ब्रह्माजी भी समर्थ नहीं है। सब दानों में अश्वदान उत्तम माना गया है, अश्वदान से श्रेष्ठ गजदान और गजदान से श्रेष्ठ रथदान है ! रथदान से भी बढ़कर भूमिदान है, भूमिदान से अधिक माहात्म्य समान दूसरा कोई दान न हुआ है न होगा; क्योंकि देवताओं, ऋषियों, पितरों और भूतों की भी अन्नदान से ही तृप्ति होती है। जो महामनस्वी मनुष्य दानतीर्थ में अन्न का दान करता है, वह तीनों ऋणों से मुक्त हो भगवान विष्णु के परमधाम में जाता है। राजेन्द्र ! मातृकुल की दस पीढियों का वह मनुष्य उद्धार कर देता है। दानतीर्थ में दान करने वाले मानव देहत्याग के पश्चात चतुर्भुज दिव्य रूप धारण करके, गरुड़ध्वज अलंकृत हो भगवान विष्णु के धाम में जाता है। राजन् ! भगवान के मन्दिर से उत्तर दिशा में आधे कोस की दूरी पर मनोहर ‘मायातीर्थ’ स्नान करके मायादेवी का पूजन करता है, वह सम्पूर्ण मनोरथों को प्राप्त कर लेता है- इसमें संशय नहीं है। सम्पन्न करके, समस्त गोपियों को साथ ले, श्रीराधा और अपनी रानियों–सहित द्वारका में प्रविष्ट हुए। उन्होंने श्रीराधा के लिये बहुत-से सुन्दर मन्दिर बनवाये। उन समस्त व्रजांगनाओं के रहने के लिये भी सुखपूर्वक व्यवस्था की। नरेश्वर ! इस प्रकार मैंने सिद्धाश्रम की कथा तुम्हें सुनायी है, जो समस्त पापों को हर लेने वाली, पुण्यमयी तथा सबको मोक्ष देने वाली है। इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में द्वारका खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में प्रथम दुर्ग के भीतर ‘लीला-सरोवर, हरि मंदिर, ज्ञानतीर्थ, कृष्ण कुण्ड, बलभद्र सरोवर, दानतीर्थ, गणपतितीर्थ और मायातीर्थ के माहात्म्य का वर्णन’ नामक उन्नीसवां अध्याय पूरा हुआ । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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