गर्ग संहिता
द्वारका खण्ड : अध्याय 15
वहाँ गोपियों अंगराग से उत्पन्न उत्तम गोपीचन्दन उपलब्ध होता है। जो अपने अंगों में गोपीचन्दन लगाता है, उसे गंगा स्नान का फल मिलता है। जो सदा गोपीचन्दन की मुद्राओं से मुद्रित होता है, अर्थात गोपीचन्दन का छापा तिलक लगाता है, उसे प्रतिदिन महानदियों में स्नान करने का पुण्यफल प्राप्त होता है। उसने सहस्त्र अश्वमेध और सौ राजसूय यज्ञ कर लिये। सब तीर्थों का सेवन, वह नित्य गोपीचन्दन लगाने मात्र से कृतार्थ हो जाता माना गया है, उससे भी दस गुना पुण्य पंचवटी की रज का है, उसकी अपेक्षा भी सौगुना पुण्य गोपीचन्दन रज का है। गोपीचन्दन को तुम वृन्दावन की रज के समान समझो। जिसके शरीर में गोपीचन्दन लगा हो, वह सैकड़ों पापों से युक्त हो तो भी उसे यमराज भी अपने साथ नहीं ले जा सकते, फिर यमदूतों की तो बात ही क्या है। पापी होने पर भी जो पुरुष प्रतिदिन गोपीचन्दन का तिलक धारण करता है, वह श्रीहरि के गोलोकधाम में जाता है, जहाँ प्राकृत गुणों का प्रवेश नहीं है। सिन्धु देश का एक राजा था, जिसका नाम दीर्घबाहु था। वह अन्याय पूर्ण जीवन बिताने वाला, दुष्टात्मा और सदा वेश्या संग में रत रहने वाला था। उसने भारतवर्ष में सैकड़ों ब्रह्महत्याएं की थीं। उस दुरात्मा ने दस गर्भवती स्त्रियों का वध किया था। उसने शिकार खेलते समय अपने बाण-समूहों से कपिला गौओं की हत्या की थी। एक दिन वह सिंधी घोड़े पर चढ़कर मृगमया के लिये वन में गया। वहाँ उसके कुपित मन्त्री ने राज्य के लोभ से उस महाखल नरेश को तीखी धार वाली तलवार से उस वन में ही मार डाला। उसको पृथ्वी पर पड़ा और मृत्यु को प्राप्त हुआ देख यम के सेवक बांधकर परस्पर हर्ष प्रकाट करते हुए उसे यमपुरी ले गये। उस पापी को सामने खड़ा देख बलवान यमराज ने तुरंत ही चित्रगुप्त से पूछा- ‘इसके योग्य कौन-सी यातना है ? चित्रगुप्त ने कहा- महाराज ! निस्संदेह इसे चौरासी लाख नरकों में बारी-बारी से गिराया जाय और जब तक चन्द्रमा और सूर्य विद्यमान हैं, तब तक यह नरक का कष्ट भोगता रहे। इसने भारतवर्ष में जन्म लेकर एक क्षण भी कभी पुण्य-कर्म नहीं किया है। इसने दस गर्भवती स्त्रियों की और असंख्य कविला गौओं की हत्या की है। इसके सिवा अन्य पशुओं की हत्या तो इसने हजारों की संख्या में की है। इसलिये देवता और ब्राह्मणों की निन्दा करने वाला यह महान पापी है। नारदजी कहते हैं- राजन् ! उस समय यम की आज्ञा से यमदूत उस पापात्मा को लेकर कुम्भीपाक नरक में ले गये, जिसका दीर्घ विस्तार एक सहस्त्र योजन का था। वहाँ विशाल कडा़ह में तपाया हुआ तेल भरा था। उस खौलते हुए तेल में फेन उठ रहे थे। यमदूतों ने उस पापी को उसी कुम्भीपाप में गिरा दिया। उसके गिरते ही वहाँ की प्रलयाग्नि के समान प्रज्वलित अग्नि तत्काल शीतल हो गयी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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