गर्ग संहिता
द्वारका खण्ड : अध्याय 13
पूर्वकाल में हस्तिनापुर में राजमार्गपति नामक एक श्रेष्ठ वैश्य निवास करता था। वह महान गौरवशाली तथा कुबेर के समान निधिपति था। आगे चलकर वह वैश्य वेश्याओं के प्रसंग में रहने लगा। वह विटों (धूर्तों और लम्पटों) की गोष्ठी में बड़ा चतुर समझा जाता था। जुआ खेलाने मे उसकी बड़ी आसक्ति थी। वह लोभ, मोह और मद से उन्मत रहता था। वह महादुष्ट वेरूय सदा झूठ बोलता और कुकर्म में लगा रहता था। उसने ब्राह्मणों, पितरों और देवताओं के निमित कभी धन का दान नहीं किया। वह यदि कहीं दूर से भगवान की कथा- वार्ता होती देख लेता तो कतराकर जल्दी ही और दूर निकला जात था। उसने मां-बाप की कभी सेवा नहीं की और अपने पुत्रों को भी धन नहीं दिया। वह ऐसा दुर्बुद्धि और खल था कि धनाढ्य होने पर भी अपनी पत्नी को त्यागकर उससे अलग रहने लगा। वेश्याओं के संग में रहने से उसका आधा धन नष्ट हो गया; आधा चोर चुरा ले गये और जो कुछ थोड़ा-सा पृथ्वी में गड़ा हुआ था, वह स्वत: वहीं विलीन हो गया; क्योंकि पुण्य से लक्ष्मी बढ़ती है और पाप से निश्चय ही नष्ट हो जाती है। इस प्रकार वेश्याओं में में आसक्त हुआ वह महादुष्ट वैश्य निर्धन हो गया और उसी रमणीय नगर हस्तिनापुर में चोरी का काम करने लगा। उन दिनों वहाँ राजा शांतनु राज्य करते थे। उन्होंने चोरी के कर्म में लगे हुए उस वैश्य को रस्सियों से बांधकर अपने देश से बाहर निकलवा दिया। वन में रहकर वह जीवों की हिंसा करने लगा। उन्हीं दिनों वहाँ बहुत वर्षों तक वर्षा नहीं हुई। तब दुर्भिक्ष से पीड़ित हुआ वह वैश्य पश्चिम दिशा की ओर चला गया। वहाँ वन में किसी सिंह ने अपने पंजे से उसको मार डाला। उसी समय यमदूत आये और उसे पाशों में बांधकर नीचे मुख करके लटकाये तथा कोड़ों से पीटते हुए यमलोक के मार्ग पर ले चले। तदनन्तर कोई महान गृध्र उसकी बांह का मांस लेकर आकाश मे उड़ गया ओर अपनी चोंच से तुरंत ही उसको खाने लगा। अन्य पक्षी जिन्हें मांस नहीं मिला था, वे सब आतुर हो उसी में से अपने लिये भी मांस ग्रहण करने लगे। इस प्रकार चील आदि पक्षियों का वहाँ महान् कोलाहाल होने लगा; तथापि उस गृध्र ने अपने मुख से उस मांस को नहीं छोड़ा। वह उड़ते-उड़ते पश्चिम दिशा की ओर चला गया। वहाँ उसी के समान शक्तिशाली एक दूसरे गृध्र ने उसके मुख पर अपनी तीखी चोंच से प्रहार किया। तब उसके मुँह से वह मांस गोमती सागर-संगम में गिर गया। उस तीर्थ में उसके मांस के डूबते ही यह महापात की वैश्य यमदूतों के पाशों को स्वयं तोड़कर चार भुजाओं से युक्त देवता हो गया और उन दूतों के देखते-देखते दिव्य विमान पर आरुढ़ हो सम्पूर्ण दिशाओं को प्रकाशित करता हुआ वह श्रीहरि के परमधाम में चला गया। जो मनुष्य गोमती-समुद्र-संगम के इस माहात्म्य को सुनता है, वह सब पापों से मुक्त हो भगवान विष्णु के लोक में जाता है। इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में द्वारका खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में 'प्रभास, सरस्वती, बोधपिप्पल तथा गोमती-सिन्धु-संगम का माहात्म्य' नामक तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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