गर्ग संहिता
द्वारका खण्ड : अध्याय 7
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! डर के मारे विलाप करती हुई रुक्मिणी का मुँह दु:ख के कारण सूख गया था। उसका कण्ठ रुँध गया। अपनी प्रिया सती रुक्मिणी की ऐसी अवस्था देखकर श्रीहरि रुक्मी के वध से विरत हो गये। फिर उसी के कमरबन्ध से बांधकर तीखी धार वाले खड्ग से श्रीहरि ने रुक्मी के आधे मुख की दाढ़ी-मुँछ के बाल साफ कर दिये । इतने में ही दो अक्षौहिणी सेना को परास्त करके सैनिकों सहित बलरामजी वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने देखा कि रुक्मी कुरूप और दीन अवस्था में बँधा पड़ा है। फिर तो उनके हृदय में दया आ गयी और उसका बन्धन खोलकर बलरामजी ने श्रीहरि को फटकारते हुए कहा- ‘कृष्ण ! तुमने यह अच्छा नहीं किया, यह लोकनिन्दित कर्म है। अपनी पत्नी के भाइयों के साथ इस प्रकार परिहास नहीं किया जाता। जिसके बडे़ भाई को तुमने विरूप कर दिया, वह रुक्मिणी भाई की इस दुर्दशा से चिन्तित होकर तुम्हें क्या कहेगी ?‘ श्रीकृष्ण से यों कहकर वे रुक्मिणी से बोले-‘’कल्याणि ? ‘तुम शोक न करो। शुचिस्मिते ! स्वस्थ हो जाओ। आर्यकुमारी ! महामते ! तुम शोक बिलकुल छोड़ दो, मन में दु:ख मत मानो। प्रिय अथवा अप्रिय जो भी प्राप्त होता है, वह सब मैं काल का किया हुआ मानता हूँ। जैसे घनमाला वायु के अधीन होती है, उसी प्रकार यह सारा जगत काल के वशीभूत है। उस काल को तुम कलना करने वालों का स्वामी परमेश्वर ण्वं विष्णु समझो। ‘मैं’ और ’मेरा’ यह भाव ही जगत) के लिये बन्धन का कारण होता है। अहंता और ममता रहित भाव ही ‘मोक्ष’ है, इसमें संशय नहीं है; सुख और दु:ख देने वाला दूसरा कोई नहीं है। यह सब लोगों का अपना भ्रम ही है। शत्रु, मित्र और उदासीन की कल्पना संसारी लोगों द्वारा अज्ञान के कारण की गयी है’। इस प्रकार भगवान बलराम के समझाने पर भीष्मक पुत्र रुक्मी वैमनस्य छोड़करचला गया और रुक्मिणी को भी प्रसन्नता हुई। रुक्मी का मनोरथ व्यर्थ हो चुका था, बलराम और श्रीकृष्ण के द्वारा जीवित छोड़ दिये जाने पर अपने विरूपकरण की घटना को याद करके उसने तपस्या में लग जाने का विचार किया। किंतु मुख्य मन्त्रियों के मना करने पर उसने तप का विचार छोड़ दिया, तथापि कुण्डिनपुर में फिर पैर नही रखा। रुक्मी ने अपने निवास के लिये भोजकट नामक एक उत्तम नगर का निर्माण कराया। राजन् ! बलराम और यदुवंशी योद्धाओं से घिरे हुए रुक्मिणी सहित भगवान गोविन्द अपनी विजयदुन्दुभि बजवाते हुए द्वारका को चले गये। वहाँ बड़ा भारी उत्सव मनाया गया। मार्गशीर्ष मास में साक्षात श्रीहरि ने वैदिक विधि के अनुसार रुचिर मुखवाली रुक्मिणी के साथ विवाह किया। रुक्मिणी पति श्रीहरि का विवाह सम्पन्न हो जाने पर श्रीरुक्मिणी देवी उनके रुक्ममन्दिर (सुवर्णमय भवन) की शोभा बढा़ने लगीं। पुण्यवती द्वारकापुरी उस समय देवराज इन्द्र की अमरावती के समान सुशोभित हो रही थी। भीष्मनन्दिनी रुक्मिणी के विवाह की इस विचित्र कथा को जो भक्तिभाव से सुनता और सुनता है, वह भक्त इस लोक में भी वैभव से सम्पन्न रहता है और देहावसान के पश्चात वही मोक्ष भागी होता है। इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में द्वारका खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में 'श्रीरुक्मिणी का विवाह' नामक सातवाँ अध्याय पूरा हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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