गर्ग संहिता
गोलोक खण्ड : अध्याय 9
श्री नारद जी कहते हैं- मिथिलेश्वर ! गर्गजी के उक्त आदेश को ही शिरोधार्य करके समस्त धर्मधारियों में श्रेष्ठ श्रीदेवक ने सगाई के निश्चय के लिये पान का बीड़ा भेज दिया और गर्ग जी की इच्छा से मंगलाचार का सम्पादन करके विवाह में वसुदेव वर को अपनी पुत्री अर्पित कर दी। विवाह हो जाने पर विदाई के समय वसुदेवजी घोड़ों से सुशोभित अत्यंत सुन्दर रथ पर सुवर्ण-निर्मित एवं रत्नमय आभूषणों की शोभा से सम्पन्न नव वधू देवकराज-कन्या देवकी के साथ आरूढ़ हुए। वसुदेव के प्रति कंस का बहुत ही स्नेह और कृपाभाव था। वह अपनी बहिन का अत्यंत प्रिय करने के लिये चतुरंगिणी सेना के साथ आकर गमनोद्यत घोड़ों की बागड़ोर अपने हाथ में ले स्वयं रथ हाँकने लगा। उस समय देवक ने अपनी पुत्री के लिये उत्तम दहेज के रूप में एक हजार दासियाँ, दस हजार हाथी, दस लाख घोड़े, एक लाख रथ और दो लाख गौएँ प्रदान की। उस विदाकाल में भेरी, उत्तम मृदंग, गोमुख, धन्धुरि, वीणा, ढ़ोल और वेणु आदि वाद्यों का और साथ जाने वाले यादवों का महान कोलाहल हुआ। उस समय मंगलगीत गाये जा रहे थे और मंगलपाठ भी हो रहा था। उसी समय आकाशवाणी ने कंस को सम्बोधित करके कहा- ‘अरे मूर्ख कंस ! घोड़ों की बागड़ोर हाथ में लेकर जिसे रथ पर बैठाये लिये जा रहा है, इसी की आठवीं संतान अनायास ही तेरा वध कर डालेगी- तू इस बात को नहीं जानता।’ कंस सदा दुष्टों का ही साथ करता था। स्वभाव से भी वह अत्यंत खल (दुष्ट) था। लज्जा तो उसे छू नहीं गयी थी। वह निर्दय होने का कारण बड़े भयंकर कर्म कर डालता था। उसने तीखी धारवाली तलवार हाथ में उठा ली, बहिन के केश पकड़ लिये और उसे मारने का निश्चय कर लिया। उस समय बाजेवालों ने बाजे बन्द कर दिये। जो आगे थे, वे चकित होकर पीछे देखने लगे। सबके मुँह पर मुर्दनी छा गयी। ऐसी स्थिति में सत्पुरुषों में श्रेष्ठ श्री वसुदेव जी ने कंस से कहा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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